आजतक के वरिष्ठ पत्रकार रोहित सरदाना का शुक्रवार को हृदयघात से निधन हो गया। वे कोरोना से भी लड़ रहे थे और नॉएडा के एक अस्पताल में भर्ती थे। जब से उनके असामयिक निधन की खबर आई, राजनीतिक गलियारे से लेकर आम आदमी तक सभी ने शोक संवेदना व्यक्त की।हालाँकि एक वर्ग ऐसा भी रहा जो इस खबर से खुशियाँ मना रहा था। यह वर्ग था इस्लामिस्टो का, जिसमे कुछ तो पत्रकार और ब्लू टिक वाले थे।
यही नहीं लेफ्ट ब्रिगेड के भी कुछ लोग थे जिन्होंने रोहित सरदाना के निधन की खबर को अपने प्रोपोगेंडे के लिए इस्तेमाल किया जिसमें से सबसे प्रमुख थे काले स्क्रीन के जाति पूछने वाले रविश कुमार। उन्होंने भारत के डाक्टरों के समर्पण और प्रतिबधता पर ही सवाल खड़ा कर दिया। अब इससे अधिक अमनुष्यता क्या हो सकती है?
उन्होंने फेसबुक पर एक लम्बा चौड़ा लेख लिखा और अपने अन्दर की कुंठा की उलटी करते हुए मौत का तमाशा बनाने में कसर नहीं छोड़ी। अपने पोस्ट में रविश ने रोहित की मौत के बहाने अपने प्रोपोगेन्डा को रखते हुए डाक्टरों की प्रतिबधता और योग्यता पर ही सवाल उठा दिया।
यानी किसी मरीज की मौत हो जाती है, उनके हिसाब से इसका दोष डॉक्टरों पर है और मेडिकल लापरवाही है। ये एक रेमन मैग्सेसे पुरस्कार विजेता पत्रकार की मानसिकता है, ऐसी घटिया, नकारात्मक, बीमार मानसिकता!
उन्होंने लिखा, “क्या लोग अपने लक्षण को नहीं समझ पा रहे है, समझा पा रहे हैं या डाक्टरों की सलाह को पूरी तरह से नहीं मान रहे हैं या एक से अधिक डाक्टरों की सलाह में उलझे हैं? मैं नहीं कहना चाहूँगा कि लापरवाही हुई होगी।“
शब्दों के जाल में रविश अपनी नफरत को छिपाने का भरसक प्रयास किया है लेकिन अपने प्रोपोगेंडे को नहीं छुपा पाए।इसके बाद वे सीधे उसी मुद्दे पर आ गए जिसके सहारे उनकी पत्रकारिता चलती है।
Whatsaap Forword को बिना बीच में लाये उनकी पत्रकारिता ही अधूरी है, इस पर उन्होंने लिखा कि, “कई जगहों से डाक्टरों के बनाए व्हाट्स एप फार्वर्ड आ जा रहे हैं। जिनमें कई दवाओं के नाम होते हैं। उसके बाद मरीज़ और डाक्टर के बीच संवाद रहता है या नहीं। मैं डाॅक्टर नहीं हूँ। लेकिन कोविड से गुज़रते हुए जो ख़ुद अनुभव किया है कि उससे लगता है कि मरीज़ और डाक्टर के बीच संवाद की कमी है। इस वक़्त डाक्टर काफ़ी दबाव में हैं। और मरीज़ डाक्टर से भी ज़्यादा डाॅक्टर हो चुके हैं।“
यानी रविश कुमार के अनुसार, डॉक्टर रोगियों के साथ पर्याप्त संवाद नहीं कर रहे हैं जिससे इतनी मौते हो रही है। यह रविश का वास्तविक निराशावादी चेहरा ही है जो लोगों में डर फैलाने का काम करता है।
ऐसा लगता है कि रवीश कुमार ने भी अपने पोस्ट को 10 से अधिक बार एडिट किया, क्योंकि उनके वास्तविक पोस्ट से उनका अभी का पोस्ट एकदम भिन्न है। स्क्रीनशॉट में स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि जब उन्होंने पहली बार पोस्ट लिखा तो उन्होंने रोहित सरदाना की मौत का ठीकरा डॉक्टरों के सर ही फोड़ दिया था जिसे बाद में बदल दिया गया।
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उन्होंने पहले पोस्ट में लिखा था कि, “किस आधार पर डॉक्टर दवाइयाँ लिख रहे हैं और उनके द्वारा रोगियों के लक्षणों की निगरानी कैसे की जा रही है। घरेलु स्तर पर डॉक्टर लोग क्या इलाज कर रहे हैं जिससे मरीज़ इतनी बड़ी संख्या में अस्पताल जा रहे हैं और वहाँ भी स्थिति बिगड़ रही है।“
फिर जब लोगों ने कमेन्ट बॉक्स में रविश को लताड़ना शुरू किया होगा तो उन्होंने चालाकी से एडिट कर अपने पोस्ट को न्यूट्रल बनाने की कोशिश की।
आप चाहे तो उनके इस पोस्ट पर हुए एडिट को View Edit History में जा कर देख सकते हैं। अगर कोई एक आदमी है जो मानव त्रासदी का उपयोग कर सकता है और भारतीय डॉक्टरों की क्षमताओं पर आकांक्षाएं डालने के लिए एक साथी पत्रकार की मौत का इस्तेमाल कर सकता है वह भी सिर्फ मोदी सरकार पर अपनी कही हुई बात को सही ठहराने के लिए, तो यह रवीश कुमार ही हैं।
भारतीय मीडिया में किसी और के पास इस तरह की निर्लज्जता और बात को घुमाने की क्षमता नहीं है। रवीश कुमार ने एक बार फिर पत्रकारिता के पेशे को शर्मसार करने का काम किया है।
आपके लेख के संदर्भ में सिर्फ इतना ही कहना चाहूंगा कि रवीश कुमार हो या दीपक चौरसिया या फिर आप और में स्वयं सभी को अपने अपने कार्यों में ध्यान देना चहिए। सिर्फ किसी की पिक्चर अपने दिमाक में इसलिए गलत नहीं बना लेनी चहिए कि वो रवीश कुमार हैं या फिर वाजपई। रवीश कुमार का काम है सवाल करना, उन्होंने किया।
इस लेख में समय खराब करने से बेहतर होता कि सरकार से सवाल करते कि,
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नोट : सर, एक उदहारण रोहित सरदाना है, मृत्यु हार्ट अटैक से हुई है,
पर मारा कोरोना ने ही है।
माफी के साथ लिखने की हिम्मत जुटाई है