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चीन के प्रति नेहरू की निस्स्वार्थ सेवा के लिए उन्हें चीन का सर्वोच्च सम्मान “The Medal of the Republic” मिलना चाहिए

रॉ के किए कराए पर पानी फेरने के लिए मोरारजी देसाई को निशान-ए-पाकिस्तान मिल सकता है, तो फिर जवाहरलाल नेहरू को The Medal of the Republic क्यों नहीं

Animesh Pandey द्वारा Animesh Pandey
24 September 2021
in इतिहास
चीन जवाहरलाल नेहरू
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भारत के एक ऐसे प्रधान मंत्री जिन्हें दुश्मन देश पाकिस्तान से वहाँ का सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘निशान-ए-पाकिस्तान’ से सम्मानित किया था। क्या आपको उनका नाम पता है? मोरारजी देसाई उनका नाम था। कहा जाता है कि 1974 में भारत और पाक के बीच न्यूक्लियर रेस के दौरान मोरारजी देसाई ने पाकिस्तान के राष्ट्रपति को फोन कर पाकिस्तान में मौजूद The Kaoboys यानी रॉ ऐजेंट की जानकारी दे दी थी जो उनकी हत्या का कारण बना और ISI ने सभी को एक एक कर हत्या कर दी थी। इसके बाद पाकिस्तान ने 1990 में उन्हें ‘निशान-ए-पाकिस्तान’ सम्मान दिया था। इसी तरह भारत एक और प्रधान मंत्री हैं जिन्हें इसी तरह का सम्मान मिलना चाहिए। वो भी चीन से।भारत और चीन के बीच राजनीतिक समस्या 1950 के दशक से व्याप्त है, और इसके पीछे हमारे प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का कितना महत्वपूर्ण योगदान है, ये भी किसी से नहीं छुपा है।

परंतु ऐसे कई और भी तथ्य हैं, जिनसे हमारा राष्ट्र परिचित नहीं है, और जिनसे परिचित होकर ऐसा प्रतीत होता है कि जिस प्रकार से जवाहरलाल नेहरू ने कम्युनिस्ट चीन की ‘निस्स्वार्थ’, निश्छल सेवा की है, उतनी तो स्वयं कम्युनिस्ट चीन के संस्थापक माओ जेडोंग और शी जिनपिंग ने भी नहीं किया होगा।

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वो कैसे? इसके पीछे कई तथ्य है, जिनसे आप आज परिचित होंगे और कई ऐसे हैं जिनसे आप पहली बार जानेंगे। इस सभी के विश्लेषण से आपको समझ में आएगा कि आखिर क्यों चीन के प्रति नेहरू की निस्स्वार्थ सेवा के उन्हे चीन के सर्वोच्च सम्मान “The Medal of the Republic” से सम्मानित करना चाहिए।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि जवाहरलाल नेहरू की कृपा से चीन UN सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्य बन पाया है, परंतु क्या आपको ज्ञात है कि भारत के पास तिब्बत को स्वतंत्र रखने का एक सुनहरा अवसर था, और उसे जवाहरलाल नेहरू ने जानबूझकर अपने हाथ से जाने दिया?

चीन के लिए जवाहरलाल का अकथनीय प्रेम

जब 1949 में कम्युनिस्ट क्रांति के बाद माओ ज़ेडोंग या माओ त्से तुंग के नेतृत्व में कम्युनिस्ट सत्ता का गठन चीन में हुआ था, तो भारत उन सर्वप्रथम देशों में सम्मिलित था, जिन्होंने इस कम्युनिस्ट सत्ता को मान्यता दी थी। परंतु इस मान्यता को दिलवाने में भी प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू कुछ अधिक ही अधीर थे, जिसके बारे में ‘The long Game’ पुस्तक में पूर्व विदेश सचिव विजय गोखले ने उल्लेख भी किया है। जवाहरलाल नेहरू ने पहले Kuomintang गुट के प्रमुख, जनरल चियांग काई शेक के साथ निकटता बढ़ाई, लेकिन जहां उन्हें माओ ज़ेडोंग में लाभ दिखा, उन्होंने तुरंत चियांग का साथ छोड़ माओ का हाथ थाम लिया।

चीन में कम्युनिस्ट शासन को मान्यता देने की अधीरता

परंतु प्रश्न तो अब भी व्याप्त है – इसका तिब्बत से क्या लेना देना, और तिब्बत पर चीन के नियंत्रण में नेहरू ने ऐसा क्या योगदान दिया, जिसके कारण आज चीन भारत को आँखें दिखाता है? द लॉन्ग गेम के एक अंश के अनुसार 1948 में ही इस राजनीतिक चक्रव्यूह की नींव पड़ चुकी थी, जब जवाहरलाल नेहरू कम्युनिस्ट चीन को मान्यता देने के लिए अपने राजदूत के एम पणिक्कर के जरिए माओ ज़ेडोंग और कम्युनिस्ट पार्टी से मजबूत संबंध स्थापित करना चाहते थे।

और पढ़ें: कैसे सरदार पटेल के नेतृत्व में ऑपरेशन पोलो ने भारत को सम्पूर्ण इस्लामीकरण से बचाया

जी हाँ, ये वही प्रधानमंत्री नेहरू थे, जो अपने ही देश के दो प्रांत, कश्मीर और हैदराबाद में कट्टरपंथियों के बढ़ते अत्याचारों की ओर आँखें मूँदे हुए थे, मानो इन दोनों राज्यों में कुछ हुआ ही नहीं। लेकिन कम्युनिस्ट चीन को मान्यता दिलाने के लिए वे इतने अधीर हो रहे थे, मानो इन्हें मान्यता नहीं मिली, तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जवाहरलाल नेहरू का कद कम हो जाएगा।

जवाहरलाल नेहरू की इसी विकृत सोच के प्रति सरदार पटेल ने उन्हे सचेत करने का प्रयास किया था। सरदार पटेल कम्युनिस्ट चीन के द्विअर्थी स्वभाव से अनभिज्ञ नहीं थे। एक दूरदर्शी राजनीतिज्ञ होने के नाते उन्हे इस बात का पूर्ण आभास था कि यदि चीन तिब्बत पर आक्रमण कर अपनी सीमा में मिला लेगा तो वह भारत पर भी आक्रमण कर सकता है, और ऐसा ही हुआ भी।

अक्टूबर 1950 में चीन की लिब्रेशन आर्मी तिब्बत पर आक्रमण कर दिया। चीन के निरंकुश नेता माओ ने तिब्बत पर हमला कर उसे चीन में मिलाने का पूरा प्रबंध कर लिया था। इस पर सरदार पटेल ने जवाहर लाल नेहरू को 7 नवंबर को पत्र लिख कर आगाह किया था तथा तुरंत अपनी सीमा को दुरुस्त करने और चीन के खिलाफ कड़े निर्णय लेने का सुझाव दिया था। सरदार पटेल ने अपने पत्र में लिखा, “तिब्बत हमारे एक मित्र के रूप में था, इसलिए हमें कभी समस्या नहीं हुई। हमने तिब्बत के साथ एक स्वतंत्र संधि कर हमेशा उसकी स्वायत्तता का सम्मान किया है। उत्तर-पूर्वी सीमा के अस्पष्ट सीमा वाले राज्य और हमारे देश में चीन के प्रति लगाव रखने वाले लोग कभी भी समस्या का कारण बन सकते हैं।”

वह चीन की आक्रमणकारी नीति के बारे में बताते हुए आगे लिखते हैं, “चीन की कुदृष्टि हमारे हिमालयी इलाकों तक ही सीमित नहीं है। वह असम के कुछ महत्वपूर्ण हिस्सों पर भी नजर गड़ाए हुए है। बर्मा पर भी उसकी नजर है। बर्मा के साथ और भी समस्या है, क्योंकि उसकी सीमा को निर्धारित करने वाली कोई रेखा नहीं है, जिसके आधार पर वह कोई समझौता कर सके। हमारे उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों में नेपाल, भूटान, सिक्किम, दार्जिलिंग और असम के आदिवासी क्षेत्र आते हैं’।

परंतु सरदार पटेल इतने पे नहीं रुके। अपने पत्र में उन्होंने आगे लिखा, ‘चीन की अंतिम चाल, मेरे विचार से कपट और विश्वासघात जैसी ही है। तिब्बतियों ने हम पर विश्वास किया है। हम उनका मार्गदर्शन भी करते रहे हैं और अब हम ही उन्हें चीनी कूटनीति या चीनी दुर्भावना की जाल से बचाने में असमर्थ हैं। यह दुखद बात है। ताजा प्राप्त सूचनाओं से ऐसा लग रहा है कि हम दलाई लामा को भी नहीं निकाल पाएंगे’।

कैसे नेहरू ने अपना सब कुछ चीन को सौंप दिया

लेकिन जो व्यक्ति चीन को वैश्विक स्तर तक पर मान्यता दिलाने हेतु इतना अधीर था कि वह चीन द्वारा तिब्बती बौद्ध समुदाय पर हो रहे अत्याचारों पर भी आँखें मूँद ले, उसे सरदार पटेल की सलाह भला कैसे स्मरण होती? वे तो ‘हिन्दी-चीनी भाई-भाई’ का जाप कर रहे थे, एवं पंचशील के सिद्धांतों का ढोल संसार में पीट रहे थे।

इसका दुष्परिणाम भारत को 1962 में भुगतना पड़ा, जब  चीन ने ‘अक्साई चिन’ में तनातनी के नाम पर आक्रमण करते हुए भारत को कभी न भरने वाला घाव दिया। इस पराजय के बाद भी भारत ने चीन के लिए UN सुरक्षा परिषद में स्थाई सीट की दावेदारी नहीं छोड़ी, जिसके कारण आज भी चीन कई महत्वपूर्ण विषयों पर भारत के मामलों में टांग अड़ाने में सफल रहता है। उस दौरान विजया लक्ष्मी पंडित ने कहा था कि भारत पर हमले के बावजूद भारत ने माओ के चीन के लिए संयुक्त राष्ट्र की सीट का समर्थन करेगा।

जितनी तत्परता से जवाहरलाल नेहरू ने चीन की सेवा की है, उतनी तत्परता से तो चीन के बड़े से बड़े कम्युनिस्ट ने भी नहीं की है। किसी ने सही ही कहा है, शत्रु उतना बड़ा आघात नहीं कर पाता, जितना गहरा घाव अपने देते हैं, और जितने गहरे घाव जवाहरलाल नेहरू ने भारत और तिब्बत को अपनी ‘सेवा’ से दिए हैं, उसके लिए इन्हें चीन की ओर से उनका सर्वोच्च नागरिक सम्मान “The Medal of the Republic” तो देना बनता है। आखिर जब रॉ के किए कराए पर पानी फेरने के लिए मोरारजी देसाई को निशान-ए-पाकिस्तान मिल सकता है, तो फिर जवाहरलाल नेहरू को चीन के प्रति उनकी निश्छल सेवा के लिए चीन का सर्वोच्च सम्मान क्यों नहीं?

 

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