सरदार उधम एक बार फिर से विवादों के घेरे में हैं, परंतु इस बार फिल्म के कॉन्टेन्ट के कारण नहीं। शूजीत सरकार द्वारा निर्देशित ये फिल्म इस वर्ष ऑस्कर के लिए नामांकित की जाने वाली भारतीय फिल्मों की लिस्ट में शामिल की गई थी, और इस लिस्ट में ‘शेरनी’, ‘शेरशाह’ जैसी बॉलीवुड फिल्म भी शामिल थी। लेकिन इन सबके बजाए ‘Koozhangal’ यानि ‘कंकड़’ नामक तमिल फिल्म को भारत की ओर से आधिकारिक एंट्री के रूप में भेजा गया।
‘सरदार उधम’ को क्यों नहीं भेजा गया, और क्यों ये फिल्म ऑस्कर के योग्य नही थी, इस पर अलग से वाद-विवाद हो सकता है, क्योंकि ये वैचारिक मतभेद का विषय है। परंतु इसे रिजेक्ट करने के लिए ज्यूरी के एक सदस्य ने जो कारण दिया, उसे सुनकर किसी का भी खून खौल सकता है। ज्यूरी सदस्य इन्द्रदीप दासगुप्ता ने बताया, “सरदार उधम थोड़ी लंबी है और जलियाँवाला बाग मामला पर फालतू में ज्ञान देती है। ठीक है उसने एक बेनाम स्वतंत्रता सेनानी की कथा ईमानदारी से दिखाई। परंतु इस परिप्रेक्ष्य में इसने ब्रिटिश समुदाय के प्रति हमारी घृणा व्यक्त की है। Globalization के युग में ऐसी घृणा के साथ चिपके रहना उचित नहीं!”
‘अंग्रेज़ों के प्रति घृणा’ सच में? जलियाँवाला बाग में जो रक्तपिपासु अंग्रेज़ों ने अत्याचार किये, उसे वैसे ही चित्रित करना ‘अंग्रेज़ों के प्रति घृणा’ दिखाना है? एक नीच, निकृष्ट साम्राज्यवादी, जिसे अपने किये पर तनिक भी अफसोस नहीं, उसकी वास्तविकता को प्रदर्शित करना ‘अंग्रेज़ों के प्रति घृणा दिखाना है’? ऐसे बचकाने, हास्यास्पद आधार पर ‘सरदार उधम’ को रिजेक्ट करना न केवल अशोभनीय है, बल्कि ऑस्कर के लिए भारत की ओर से फिल्म भेजने वाली ज्यूरी की मानसिकता को भी प्रदर्शित करता है, जिसके पीछे आज तक केवल तीन बार भारत की ओर से कोई भी फिल्म ऑस्कर के लिए नामांकित हुई है।
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एक बार को यदि ये भी कह देते कि सरदार उधम इसलिए ऑस्कर में जाने योग्य नहीं है क्योंकि वो मार्क्सवादी इतिहासकारों के झूठे इतिहास को बढ़ावा देती है, तो न केवल इस पर चर्चा होती, अपितु इसे स्वीकार भी किया जाता, क्योंकि वैचारिक दृष्टिकोण से सरदार उधम इतिहास के प्रति पूर्णतया निष्ठावान नहीं थी।
स्वयं TFI ने विश्लेषणात्मक रिपोर्ट में लिखा है, “इसका प्रमाण स्वयं फिल्म सरदार उधम के निर्माताओं ने एक प्रोमोशनल वीडियो में दिया है, जहां वे बच्चों के साथ एक रोचक क्विज़ में भाग लेते हैं। ये कहने को एक हिस्ट्री क्विज़ है, परंतु इसमें प्रश्न वैसे ही पूछे जाते हैं, जैसे वामपंथियों को प्रिय हो – डिस्कवरी ऑफ इंडिया किसने लिखी, भारत के संविधान के रचयिता कौन थे, इत्यादि। हालांकि, इनके इरादे तब उजागर हुए, जब वीडियो में लाल-बाल-पाल का संधि विच्छेद करने को कहा गया। इस प्रश्न में ये पूछा गया कि लाल बाल पाल के नाम से किन स्वतंत्रता सेनानियों को संबोधित किया जाता है। बच्चों ने बाल और पाल तो सही बता दिए, पर लाल के तौर पर लाल बहादुर शास्त्री को संबोधित किया गया, और इस त्रुटि को सुधार कर लाला लाजपत राय [सही उत्तर] का नाम लेने के बजाए विकी कौशल और सह निर्माता रॉनी लाहिड़ी ने उन बच्चों को सही ठहराया।”
यदि फिल्म ने ‘शेरशाह’ की भांति स्पष्ट रूप से सत्य को पेश किया होता तो बात कुछ और होती, लेकिन सत्य और तथ्यों का इस फिल्म से उतना ही नाता है, जितना पाकिस्तान का धार्मिक सद्भाव से। सर्वप्रथम उदाहरण तो उधम सिंह की विचारधारा से ही है। मूल रूप से उधम सिंह एक राष्ट्रवादी क्रांतिकारी थे, जो गदर पार्टी के प्रमुख सदस्य थे, लेकिन उन्हें हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के सदस्य के रूप में दिखाया गया है, जिसकी स्थापना वास्तव में 1928 में हुई थी, जब उधम स्वयं अवैध हथियार रखने के आरोप में जेल में बंद थे।”
लेकिन ये ज्यूरी की ओर से ऐसी पहली भूल नहीं है। जैसा कि कुछ सोशल मीडिया यूजर्स ने चिन्हित किया, हमारी ज्यूरी को वही मूवी भेजने में अधिक रुचि होती है, जो भारत को हीन, दिन दृष्टिकोण में चित्रित करे, और इसीलिए 2019 में अनेक बढ़िया फिल्मों, जैसे ‘Tumbbad, ‘The Tashkent Files’, ‘Uri – The Surgical Strike’ इत्यादि को रिजेक्ट करते हुए ‘Gully Boy’ जैसे निकृष्ट फिल्म को स्वीकृति दी गई, जिसमे ‘Slumdog Millionaire’ की भांति केवल भारत की गरीबी को ही चित्रित किया गया।
ऐसे में ‘सरदार उधम’ को नकारने के पीछे जो कारण दिया है, वो बेहद निंदनीय है, जो अपने आप में स्पष्ट करता है कि आखिर क्यों भारत आज भी वैश्विक मोर्चे पर सिनेमा के बल पर अपनी छाप छोड़ने में असफल रहा है। जब हमारे देश के कलाकार ही ऐसी घृणित सोच रखेंगे, तो हम कैसे भारतीय फिल्म उद्योग को विश्व के सबसे बेहतरीन उद्योग के रूप में स्थापित करेंगे?