राष्ट्र का राजनीतिक पतन इस स्तर तक पहुँच गया है कि अब हमारे नेता लाशों पर रोटियाँ नहीं सेंकते बल्कि मुर्दे नोचते है। मुर्दे अगर कम पड़रहें हो तो अपनी क्षुधा मिटाने के लिए लोगों को भड़काते हैं, दंगे कराते है ताकि लाश कम ना पड़े। सत्ता की सनक और राजनीतिक भूख मिटाने के लिए वे ऐसा करते है, जैसा काँग्रेस और किसान संगठन के नेता कर रहें है। कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी मंगलवार को फिर से लखीमपुर खीरी जा रही हैं, जहां वो 3 अक्टूबर की घटना में मारे गए किसानों की अंतिम अरदास सभा में शामिल होंगी जबकि प्रियंका गांधी के लखीमपुर खीरी आने को लेकर भारतीय किसान यूनियन ने कहा है कि घटना में मारे गए चार किसानों के लिए अंतिम अरदास के दौरान किसी भी राजनेता को किसान नेताओं के साथ मंच साझा करने की अनुमति नहीं दी जाएगी।
भारत का एक आम नागरिक इतना प्रबुद्ध तो है ही कि प्रियंका और किसान संगठन के नेताओं की नियति और बांटने की राजनीति को समझ सकें। प्रियंका कोई सहानुभूति देने नहीं बल्कि सहानुभूति की आड़ में सिखों को हिंदुओं के खिलाफ भडकानें जा रही है। उत्तर प्रदेश का चुनाव देश का निर्णायक चुनाव होता है। अतः सत्ता हेतु प्रियंका अब विविध प्रकार के राजनीतिक नृत्य करेगी। जिन सिखों का काँग्रेस ने नरसंघार किया, जिन सिखों के साथ काँग्रेस सरकार ने घोर अत्याचार किया और मुग़लों से प्यार किया अब वही घड़ियाली आँसू बहाते हुए उनके तारनहार बनने पर तुले हुए है। लंदन में छुट्टियाँ बिताने वाले अब लखीमपुर खीरी जाना चाहतें है। आखिर क्यों?
उन्हे ना तो कोई किसान प्रेम है, ना सिख सहानुभूति और ना ही भारतीय कृषि व्यवस्था के बारे में कुछ पता है। उन्हे तो बस उत्तरप्रदेश की गद्दी चाहिए ताकि लंदन में कुछ दिन और छुट्टियाँ बिता सकें और इसके लिए उत्तर प्रदेश के सिख समुदाय को अब वो वोटबैंक के रूप में देख रहें है। इस वोटबैंक से लाभ कमाने के लिए इन्हे एकजुट करने की आवश्यकता है। अतः सिखों की एकजुटता के लिए अनिवार्य है कि लखीमपुर खीरी की घटना को राजनीतिक विवाद से इतर धार्मिक उन्माद का रंग दे दिया जाए। माहौल में जहर घोलने की प्रक्रिया चालू हो चुकी है। “हिन्दू शोषक है और सिख शोषित” इसी विचारधारा को सिख समाज के मन में विषरोपित किया जा रहा है। अतः किसान संगठन के असहमति के बावजूद भी कांग्रेस पार्टी ने कहा है कि प्रियंका गांधी 3 अक्टूबर को लखीमपुर में मंगलवार को वहां हुई हिंसा में मारे गए किसानों के “अंतिम अरदास (अंतिम प्रार्थना)” में शामिल होंगी।
किसान संगठन प्रियंका के “बाटों और राज करो” की राजनीति तथा सिख तुष्टीकरण को पहचान गए हैं। वे नहीं चाहते की सिखों के वोट बैंक का फायदा काँग्रेस उठाए। अतः किसान संगठनों ने 1984 के सिख दंगों को काँग्रेस से जोड़कर कई पोस्टर लगाए। पोस्टरों में लिखा था कि, “नहीं चाहिए फर्जी सहानुभूती, खून से भरा है दामन तुम्हारा, तुम क्या दोगे साथ हमारा, नहीं चाहिए साथ तुम्हारा।”
कांग्रेस सिखों का नाम लेकर पंजाब में भी राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश कर रही थी और यूपी में दोनों समुदायों के बीच टकराव की स्थिति पैदा कराने की कोशिश कर रही थी, लेकिन सारा दांव उल्टा पड़ गया है।
खैर, किसान संगठनों की असहमति भी उचित है आखिर किसान संगठन भी अपनी इस राजनीतिक रोटी में उन्हे हिस्सा क्यों दे? आखिर किसान संगठनों की भी अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षायें है क्योंकि बिना राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के राजनीतिक परिदृश्य पर ऐसी परिस्थिति का उभरना असंभव है। यह व्यवस्था है कि कानून संसद से ही बनेंगे। संसद ने अपने इसी अधिकार का प्रयोग कर कृषि कानून पारित किया। किसानों ने कुछ खामिया गिनायी जिसे सरकार ने दूर किया। इसके बाद शुरू हुई सामंतवाद की सत्ता सनक जिसने लाल किला से तिरंगा हटाया, दिल्ली को बंधक बनाया, आंदोलन की आड़ में हत्या-बलात्कार और व्यभिचार को बढ़ावा दिया और अंततः राज्यों के विधानसभा चुनाव के दौरान इसका शनैः शनैः राजनीतिकरण हो गया।
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इसी राजनीतिक ललकार और प्रतिकार स्वरूप निरीह किसानों से बेवजह प्रदर्शन कराया गया जबकि उच्चतम न्यायालय ने पहले ही इस बिल को रोक दिया है और केंद्र सरकार ने भी इसे लागू ना करने का लिखित वादा किया है। ना तो राहुल-प्रियंका को चोट आयी और ना ही टिकैत को, ना तो आशीष मिश्रा को खरोंच आयी और ना ही सिद्धू को। एक तरफ भाजपा के कार्यकर्ता मरे और दूसरी तरफ किसान संगठन द्वारा दिग्भ्रमित किसान कुचले गए बाकी सभी अपने अपने हिस्से की रोटियाँ खा रहें है। आप खुद ही मर रहें है और खुद को ही मार रहें है नेता सिर्फ लाश पर घड़ियाली आँसू बहाने आते है, आते रहेंगे। जनता को इस विभाजनकारी राजनीति के विकृत स्वरूप से सजग रहने की आवश्यकता है।