त्रिपुरा के निकाय चुनाव का परिणाम आ चुका है और भाजपा को प्रचंड जीत मिली है। त्रिपुरा के लोगों ने जिस उत्साह के साथ भाजपा को वोट दिया है, उससे यह स्पष्ट हो गया है कि आज का बंगाल त्रिपुरा है और आने वाले समय में त्रिपुरा उसी तरह से भारत का नेतृत्व करेगा, जिस प्रकार से सदियों पहले बंगाल ने किया था। अब आप सोच रहे होंगे कि त्रिपुरा को बंगाल क्यों कहा हमने? पश्चिम बंगाल क्यों नहीं!
जब भी बात बंगाल की आती है या कहीं भी बंगाल की चर्चा होती है, तो आज के दौर में केवल एक ही भागौलिक क्षेत्र मस्तिष्क में उभर कर सामने आता है। यह क्षेत्र है पश्चिम बंगाल का। पर क्या केवल पश्चिम बंगाल ही बंगाल है? क्या ऐतिहासिक तौर पर भी ऐसा ही रहा है? क्या कोई अन्य क्षेत्र बंगला भाषी नहीं है? आखिर क्यों इस भाषाई क्षेत्र को केवल एक राज्य के भूगोल तक सीमित कर दिया गया है? क्या कोई अन्य राज्य नहीं है, जहां बंगाली बहुसंख्यक हों?
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भारतीयता का सबसे बड़ा उदाहरण है त्रिपुरा चुनाव
बीते रविवार को त्रिपुरा में नगर निकाय चुनावों के नतीजे घोषित हुए। बीजेपी ने इन चुनावों में क्लीन स्वीप करते हुए 334 सीटों में से 329 सीटों पर जीत का परचम लहराया। चुनावों से पहले TMC द्वारा हिंसा की आग से त्रिपुरा को भी जलाने प्रयास विफल रहा और भगवा पार्टी की प्रचंड जीत हुई। इससे पहले, बीजेपी ने 112 सीटों पर निर्विरोध जीत हासिल कर ली थी, वहीं भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने तीन, TIPRA और तृणमूल कांग्रेस को 1-1 सीट से सब्र करना पड़ा था।
त्रिपुरा के लोगों का यह विश्वास दिखाता है कि कैसे लोगों को अब कम्युनिस्ट (तानाशाही) विचाराधारा से मोहभंग हो चुका है और किसी भी हालत में कम्युनिस्ट विचारधारा, चाहे वो कम्युनिस्ट पार्टी की हो या फिर TMC की हो, स्वीकार नहीं की जाएगी। TMC की हार ने सामान्य ‘विशेषज्ञों’ को चौंका दिया है, जो यह घोषणा कर रहे थे कि बंगाली पहचान के कारण, टीएमसी चुनाव जीतेगी। हालांकि, त्रिपुरा के लोग, अधिकांश बंगाली हैं और वे ममता के Idea Of Bengal से अपने आप को संबंधित नहीं रखना चाहते हैं। वहीं, त्रिपुरा नगर निकाय चुनाव देश के लिए एक उदाहरण भी है कि कैसे देश को ठीक इसी प्रकार भारतीयता को प्रचंड बहुमत से अपनाने की जरुरत है।
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बंगाल सिर्फ एक भौगोलिक क्षेत्र नहीं है!
ऐतिहासिक तौर पर देखा जाए तो बंगाल का भी इतिहास कुछ इसी तरह का रहा है। चाहे वो बौद्धिक स्तर पर हो या राजनीतिक स्तर पर बंगाल ने देश का नेतृत्व किया है। आज का त्रिपुरा भी ऐतिहासिक रूप से उसी बंगाल और बंगाली प्रभाव का भाग रहा है। इस मिथ्या को जानबूझकर एक क्षेत्र तक सीमित कर दिया गया है। बंगाल एक शब्द है, जो भारत के पूर्व में उन लोगों या बंगालियों की भूमि के रूप में संदर्भित किया जाता है, जिन्हें एक अलग accent के लिए जाना जाता है।
सन 1880 में बनाए गए बंगाल के मानचित्र को देखा जाए तो बंगाल का क्षेत्र आज के उड़ीसा, झारखंड और बिहार के कुछ भाग के साथ पूरे बांग्लादेश, पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा सहित असम और अरुणाचल प्रदेश एवं नागालैंड तक विस्तृत है। यह मानचित्र दर्शाता है कि ऐतिहासिक रूप से इसी भूमि को बंगाल कहा जाता था। लेकिन आज इसे एक राजनीतिक भगौलिक मानचित्र तक सीमित कर दिया गया है। आज जिस इतिहास पर पश्चिम बंगाल गर्व करता है, वह उसका इतिहास नहीं है, बल्कि पूरे बंगाल का इतिहास है।
श्रीकृष्ण का आलख जगाने वाले चैतन्य महाप्रभु पश्चिम बंगाल से नहीं बल्कि बंगाल से थे। अमेरिका के शिकागो में अपने भाषण से दुनिया को स्तब्ध करने वाले स्वामी विवेकानंद पश्चिम बंगाल से नहीं, बल्कि बंगाल से थे क्योंकि उस समय न तो पश्चिम बंगाल था और न ही बांग्लादेश। रविंदरनाथ टैगोर का साहित्यिक विरासत सिर्फ पश्चिम बंगाल की नहीं है बल्कि पूरे बंगाल की है। उनके द्वारा लिखे गीत को बांग्लादेश के राष्ट्रीय गान के रूप में भी उपयोग किया जाता है, इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा कि बंगाल केवल पश्चिम बंगाल तक तक सीमित नहीं है।
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क्या रहा है बंगाली हिंदुओं का इतिहास?
गौरतलब है कि त्रिपुरा को कभी एक आदिवासी राज्य के रूप में जाना जाता था, लेकिन इसके शासकों ने हमेशा राज्य में बंगाली बुद्धिजीवियों का स्वागत किया है। 1905 में, लॉर्ड कर्जन ने राज्य को मुस्लिम बहुसंख्यक और हिंदू बहुसंख्यक विभाजन में विभाजित करने का फैसला किया। हालांकि, 1911 में राज्य को फिर से एक करना पड़ा। 1951 की जनगणना के अनुसार, त्रिपुरा की जनजातियों में राज्य का 48.65 प्रतिशत हिस्सा था, जबकि 51.35 प्रतिशत पर विभिन्न लोग थे, जिनमें से अधिकांश बंगाली हिंदू थे।
त्रिपुरा में इन बंगाली हिंदुओं में, हिंदुओं का एक बड़ा हिस्सा वे बंगाली थे, जो 1947 में बंगाल के विभाजन के बाद पूर्वी पाकिस्तान से चले गए थे। वर्तमान में त्रिपुरा में लगभग 2.2 मिलियन बंगाली हिंदू हैं, जो कुल आबादी का 60% से अधिक है और वे राज्य के सबसे बड़े जातीय समूह हैं। धर्म माणिक्य प्रथम के शासन के दौरान पंद्रहवीं शताब्दी के मध्य में त्रिपुरा के राजाओं का एक इतिहास, राजमाला बंगाली में लिखे जाने के लिए कमीशन किया गया था। वीर चंद्र माणिक्य से शुरुआत करते हुए रवींद्रनाथ टैगोर तक ये सभी महापुरुष माणिक्यों के प्रिय अतिथि थे।
पश्चिम बंगाल के नकली प्रभुत्व को समाप्त करें!
त्रिपुरा में लगभग 70 प्रतिशत बंगाली हैं, ऐसे में, ममता बनर्जी यह सोच रहीं थीं कि जैसे उन्होंने पश्चिम बंगाल में TMC कार्यकर्ताओं की गुंडागर्दी से चुनाव जीता था, वही त्रिपुरा में भी किया जा सकता है। चुनावी रणनीतिकारों ने यह मानकर एक घातक गलती की कि दोनों बंगाली एक ही हैं। आज पश्चिम बांगल में ममता बनर्जी ने जिस तरह से वोट बैंक के लिए राज्य का इस्लामिकरण किया है, उसे देश के अन्य क्षेत्र के बंगाली जनता ने भी देखा है और ममता बनर्जी पर कोई भरोसा नहीं करना चाहता है।
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पश्चिम बंगाल एक भगौलिक क्षेत्र है और बंगाल एक भगौलिक के साथ-साथ सांस्कृतिक पहचान भी है, जो विस्तृत है, जिसका विस्तार त्रिपुरा तक है। आज जिस प्रकार से त्रिपुरा में पार्टी कैडरों के ठोस समर्थन से लैस बिप्लब देब एक मजबूत राजनीतिक नेता के रूप में उभर रहे हैं। इसने मूल बंगाली भावना को एक बड़ा प्रोत्साहन दिया है, जो अंततः राष्ट्र के विकास की ओर अग्रसर हुआ है। ऐसे में, यह कहना गलत नहीं होगा कि एक बार फिर से अरबिंदो घोष और स्वामी विवेकानंद जैसे मूल बंगालियों की भावना राष्ट्रीय स्तर पर अपनी छाप छोड़ने के लिए तैयार है। मूल बंगालियों के लिए अब समय आ गया है कि वे अपनी पहचान पर जोर दें और असल में उचित बंगाली पहचान की क्षितिज पर आधुनिक पश्चिम बंगाल के नकली प्रभुत्व को समाप्त करें।