दुनिया में एक दूसरे के खिलाफ नफरत बढ़ते जा रही है और जब भारत की बात आती है तब भारत की तरक्की को देख कर बहुत सारे लोग जलते है। दरअसल विडंबना यह है कि अमेरिका के बड़े और प्रभावशाली व्यक्ति भी नफरत का केंद्र बन रहे हैं। उन्हीं में से एक हैं प्रोफेसर एमी वैक्स हाल ही में, एमी वैक्स, जो एक American academic and Professor of Law at the University of Pennsylvania में कानून की प्रोफेसर ने भारतीय अमेरिकियों को नीचा दिखाने की कोशिश की। आपको बतादें कि वह फॉक्स न्यूज के मशहूर होस्ट टकर कैलरसन से बात कर रही थीं, जिनका शो अमेरिका में सबसे ज्यादा देखा जाने वाला टीवी शो है। उन्होंने अपनी घृणित टिप्पणी के लिए विशेष रूप से ब्राह्मण महिलाओं को निशाना बनाया।
साक्षात्कार के दौरान, उन्होंने कहा, “यहाँ समस्या है। उन्हें (भारत की ब्राह्मण महिलाओं को) सिखाया जाता है कि वे हर किसी से बेहतर हैं क्योंकि वे ब्राह्मण कुलीन हैं और फिर भी कुछ स्तर पर, भारत देश में बहुत कमियां है”। वह भारतीय मूल की महिला डॉक्टरों के बारे में बात कर रही थीं, जो उस प्रणाली से निराश थीं, जिसमें वे मरीजों की सेवा करती हैं। कार्लसन अपने कमेंट पर हंसते हुए नजर आई। एमी की टिप्पणियों की इंटरनेट पर तीखी आलोचना हुई। भारतीयों के साथ-साथ भारतीय अमेरिकियों ने भी उनकी आलोचना करने के लिए खुले तौर पर सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म का सहारा लिया। 21वीं सदी में की गई इस तरह की टिप्पणी पर कुछ लोगों ने आश्चर्य व्यक्त किया, जबकि अन्य ने खुलासा किया कि यह एमी विचार इससे कहीं अधिक बुरे हैं।
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एमी वैक्स नहीं है, जमीनी हकीकत से वाकिफ
जाहिर है, एमी वास्तविकता की दुनिया से दूर है। सबसे पहले, अप्रवासी अमेरिकी अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं। वास्तव में, विभिन्न जातियों के बीच शांति और सद्भाव का प्रचार करना कोई नैतिक सबक नहीं है। यह अमेरिका की आर्थिक और सामाजिक आवश्यकता है। भारत में खुद अपनी व्यापार चला कर अमेरिकी कंपनियां अपना पेट पाल रही है। 2021 की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारतीय अमेरिकी, अमेरिका में दक्षिण एशियाई प्रवासियों का सबसे बड़ा समूह हैं। 45 लाख से अधिक की संख्या के साथ भारतीय अमेरिकियों में अमेरिकी आबादी का 1.4 प्रतिशत हिस्सा है।
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अमेरिकी कंपनियों के भारतीय CEO
अमेरिका को एक बेहतर जगह बनाने में भारतीयों ने कोई कसर नहीं छोड़ी है। वास्तव में, भारत की सिलिकॉन वैली अपनी सफलता का श्रेय भारतीयों को देती है। नब्बे के दशक के अंत और 2000 के दशक की शुरुआत में भारतीय अप्रवासियों को यूके, चीन, ताइवान और जापान के अप्रवासियों की तुलना में अधिक एसटीईएम कंपनियां मिलीं। 2006 में औसत अमेरिकी स्टार्टअप कंपनियों में से 15.5 प्रतिशत से अधिक की स्थापना एक भारतीय अप्रवासी द्वारा की गई थी। 2014 के एक अध्ययन में पाया गया कि 25 प्रतिशत से अधिक भारतीय बिजनेस स्कूल के स्नातक अमेरिका में काम करना चुन सकते हैं।
2018 के एक अध्ययन में पाया गया कि फॉर्च्यून 500 और एसएंडपी में सूचीबद्ध 30 प्रतिशत अमेरिकी कंपनियों का नेतृत्व भारतीय सीईओ कर रहे थे। ट्विटर, माइक्रोसॉफ्ट और गूगल जैसी कंपनियों का नेतृत्व पराग अग्रवाल, सत्या नडेला और सुंदर पिचाई कर रहे हैं, ये सभी भारतीय मूल के हैं। दरअसल, टिम कुक की जगह अगले एप्पल सीईओ के लिए शीर्ष दावेदार साहिब खान नाम का एक भारतीय अमेरिकी भी है।
भारतीय अमेरिकी, अमेरिका के हित में
सिर्फ सीईओ ही नहीं, अन्य क्षेत्रों में भी भारतीयों का दबदबा है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि मेहनती भारतीय अमेरिकी के खिलाफ इस तरह ज़हर उगला जा रहा है ,लेकिन दुनिया जानती है कि भारत के लोग कही और किसी जगह अपनी कौशलता से अपना व्यापार चला सकते हैं लेकिन अमेरिका के कुंठित लोगों को सोचना होगा की भारतीय को नीचे दिखा कर वो खुद का नुक्सान कर रहे हैं।
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