वैश्वीकरण और आधुनिकीकरण के इस युग में हम आंखों पर पट्टी बांधकर पश्चिमी रहन-सहन को अपनाते जा रहे हैं। अंधाधुंध पश्चिम की कॉपी करते जाना चिंता का एक बड़ा विषय बनता जा रहा है। खान-पान तक तो ठीक था, पहनावा भी एक हद तक अपनाया जा सकता है लेकिन भौगोलिक स्तर पर पूरी तरह से विपरीत जगह की नकल उतारना कितना सही है? इसके क्या प्रभाव हमारे जीवन पर पड़ रहे हैं? हमें इन चिंताजनक प्रश्नों पर ध्यान केंद्रित करना होगा। विशेषकर ये भी देखना होगा कि जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभाव अब सामान्य मानव जीवन पर भयानक रूप से पड़ने लगा है। आइए इन स्थितियों को और विस्तार से समझने का प्रयास करते हैं।
भारत में हो रहा जलवायु परिवर्तन चिंता का विषय
भारत की जो उष्ण कटिबंधीय जलवायु की स्थितियां बन रही हैं उसके लिए पृथ्वी पर इसकी भौगोलिक स्थितियां जिम्मेदार हैं। जो जीवन पृथ्वी पर विकसित है और अनवरत विकसित होता जा रहा है उन पर जलवायु का बहुत अधिक प्रभाव है। उत्तर का जलवायु या वातावरण या फिर मौसम पश्चिम से बिलकुल अलग है या कहें कि विपरीत है लेकिन वैश्वीकरण ने पश्चिम के सांस्कृतिक आधिपत्य को दुनिया पर खूब थोपा, तो वहीं बड़ी संख्या में बुद्धिहीन और मूर्ख लोग उत्तर में रहकर भी पश्चिम का अनुसरण करते रहे। जिसका भुगतान आज मानव जाति को अपने जीवन से करना पड़ा रहा है।
ये तो कोई नहीं नकारेगा कि बड़े पैमाने पर उपभोक्तावाद और पश्चिम के औद्योगीकरण का परिणाम जलवायु परिवर्तन है लेकिन भारत की बात की जाए तो यहां तापमान में लगातार वृद्धि के कुछ अलग-अलग कारण दिखाई पड़ते हैं।
और पढ़ें: भारत की नई पीढ़ीं आंखें बंद करके कोरियन संस्कृति क्यों अपना रही है ?
हाल के वर्षों की बात करें तो कुछ 20 साल में भारतीय शहर गर्मी के मौसम में ‘हीट आइलैंड’ के रूप में दिखाई पड़ते हैं। इस बार की गर्मी को ही उदाहरण मान लें तो तापमान लगभग 49 से 50 डिग्री सेल्सियस तक पहुंचने के कारण ऐसा लगता है जैसे पृथ्वी पर आग के गोले बरसाए जा रहे हों। हालांकि, तापमान वृद्धि के कई कारण हो सकते हैं लेकिन एक कारण शहरों में धड़ल्ले से बनाये जा रहे भवन हैं और इन भवनों को बनाने में जिस शैली का प्रयोग आंख बंद कर किया जा रहा है वो भी इस भयंकर गर्मी और बढ़े तापमान का कारण है।
भारत के बड़े छोटे शहरों को देख लीजिए किस तरह से वहां बहुमंजिला भवन खड़े हैं और उनमें शीशे वाली वास्तुकला का प्रयोग किया गया है जो भारत के जलवायु के लिए बिल्कुल सही नहीं हैं। पर अधिक से अधिक घर बनाने की चाह में कोई इन बातों पर ध्यान देने को ही नहीं तैयार है। इन बंद घरों को बनाने में शीशों का प्रयोग करके कमरों में पर्याप्त प्रकाश लाने का प्रयास किया जाता है और नींव पर भवन का भार अधिक न पड़े इस पर भी ध्यान दिया जाता है ताकि अधिक से अधिक ऊंचे टावर खड़े किये जा सकें लेकिन धड़ल्ले से ऐसे घरों को बनाने की पागलपंथी करने वाले लोग ये नहीं समझना चाहते हैं कि ऐसे बंद और शीशा युक्त भवन पश्चिमी समशीतोष्ण जलवायु परिस्थितियों के लिए सही हैं क्योंकि वहां धूप की कमी होती है।
एसी से निकलती हैं ख़तरनाक गैसें
अधिक धूप घर में आए इसके लिए ऐसे भवनों का निर्माण किया जाता है। जहां तक भारतीय परिस्थितियों की बात करें तो यहां ऐसा नहीं है, यहां तो वैसे ही धूप बहुत अधिक पड़ती है। भारत में ऐसे भवन का निर्माण गर्मियों में पर्यावरण के लिए घातक हो जाते हैं। होता ये है कि छोटे क्षेत्रों में कृत्रिम ‘ग्लोबल वार्मिंग’ की स्थिति पैदा करने वाली गर्मी के कारण पृथ्वी के अल्बेडो प्रभाव में कमी आने लगती है जिससे औसत तापमान में वृद्धि होती है। अल्बेडो प्रभाव यानी जब एक सतह पर सूर्य की किरणें हमला करती हैं और ये किरणें बाहरी स्थान पर लौट जाती हैं।
और पढ़ें: सनातन संस्कृति के त्योहार, जिनके बारे में हिंदुओं को अधिक जानने की आवश्यकता है
समशीतोष्ण जलवायु के कारण मुंबई, कोलकाता या बेंगलुरु जैसे शहरों में ग्लोबल वार्मिंग की स्थिति का यह कृत्रिम निर्माण थोड़ा संतुलित है लेकिन दिल्ली, कानपुर, भोपाल या पटना जैसे शहर ऐसी समस्या का सामना नहीं कर सकते क्योंकि ये शहर भूमि से घिरे हुए हैं और जिससे हवा के धीमा या बहुत धीमा होने के कारण गर्मी को स्थानांतरित करना मुश्किल हो जाता है।
ऐसे में तापमान को ठंडा करने के लिए घरों और कार्यालयों में एसी लगाना पड़ जाता है जिससे और अलग-अलग तरह की समस्याएं पैदा होती हैं। एयर कंडीशनिंग जैसी मशीनों के उपयोग से निकलने वाली हाइड्रोफ्लोरोकार्बन (एचएफसी) गैसें सबसे शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैस हैं जो कि ग्लोबल वार्मिंग में सहायक होती हैं और इससे पृथ्वी के तापमान में वृद्धि होती है।
भारतीय शैली में होने वाले निर्माण ही हैं समाधान
प्रश्न है कि समाधान क्या है? तो आप गांव जाएंगे तो आज भी आपको वहां के घरों में जाकर ठंडक महसूस होगी चाहे जितनी भी गर्मी हो। क्यों कि पुराने घरों को भारत की मौसमी परिस्थितियों को देख कर बनाए गए हैं। पुरानी वास्तुकला पर बने अधिकांश घरों में हवा का वेंटिलेशन सही तरीके से हो सके, धूप सीधे घरों पर न पड़े, बरामदा, कई खिड़कियां, वर्षा जल संचयन प्रणाली, और अधिक महत्वपूर्ण रूप से पेंट और रंगों का स्थानीय उपयोग के साथ ही और भी ऐसी ही कई बातों पर ध्यान दिया जाता रहा है जिससे ऐसे घरों या बड़े भवनों से जलवायु परिस्थितियों के अनुकूल रहे।
और पढ़ें: भारतीय संस्कृति और विरासत के पुनरुद्धार के लिए राकेश सिन्हा की पहल समय की मांग है
आपको प्राचीन मंदिर के वास्तुकला के रूप में ही सबसे अच्छा उदाहरण देखने को मिल जाएगा। जहां एक अलग सुखद अनूभूति और भीषण गर्मी में भी ठंडक मिलती है। लेकिन पश्चिम से लाई गई वास्तुकला भारत के शहरों की जलवायु को तहस नहस करने पर तुली हुई है। हास्यास्पद बात तो ये है कि किसी को फर्क भी नहीं पड़ता, चाहे सब बर्बाद हो जाए।
आना चाहिए बिल्डिंग कोड
हाल की परिस्थितियों से उबरने के लिए हल क्या है? तो इसके लिए सरकार को स्थानीय जलवायु परिस्थितियों के अनुरूप एक मॉडल बिल्डिंग कोड लाना चाहिए साथ ही वास्तुकला के निर्माण में भवन के आगे के भाग में कांच के उपयोग पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए। अगर कोई कार्रवाई नहीं की गई तो मानव को अपना जीवन संकट में डालकर ही इसका भुगतान करना होगा।
सारगर्भित बात ये है कि जिस तरह से उत्तर पर पाश्चात्य सोच हावी रही है और जिस तरह से पश्चिमी संस्कृति का आधिपत्य दुनिया पर आज भी राज कर रहा है, अगर इसे अब भी अनदेखा किया जाता रहा और आगे भी ऐसा चलता रहा, विशेषकर भारत में तो वो दिन दूर नहीं जब पछतावे के अलावा हाथ कुछ नही लगेगा।
और पढ़ें: भारत को स्कूल स्तर पर खेल संस्कृति को बढ़ावा देने की आवश्यकता है