विपक्षी एकता एक ढकोसला है यह भारतीय राजनीति का वर्तमान प्रदर्शित करता है। स्वयं कमज़ोर होने का अर्थ है कि दूसरे का हमसे मजबूत होना, पर विपक्षी दलों को यह बात न कल समझ आई, न आज आती है और न ही आगे समझ में आएगी। देश की सबसे वयोवृद्ध पार्टी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को वर्षों से एक चेहरा नहीं मिल पा रहा है और दूसरी ओर अब राष्ट्रपति चुनाव में विपक्षी पार्टियों को एकजुट रखने में भी कांग्रेस विफल साबित हो रही है। राष्ट्रपति चुनाव के लिए चुनाव आयोग ने पूरा खाका जारी कर दिया है और अब बमुश्किल दो हफ़्तों के भीतर नामांकन की प्रक्रिया भी पूरी हो जाएगी, पर विपक्ष इस बात के लिए मन नहीं बना पाया है कि कौन होगा विपक्षी चेहरा? कौन करेगा विपक्ष का नेतृत्व? इसी द्वंद्व के बीच एक ऐसी खबर सामने आई है, जिसने प्रमाणित कर दिया कि यह विपक्ष सुधर ही नहीं सकता और विश्वसनीयता का संकट समूचे विपक्ष को डूबा देगा।
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विपक्ष को एकसूत्र में बांधने में नाकाम साबित हो रही है कांग्रेस
ध्यान देने वाली बात है कि वाम दलों ने आगामी राष्ट्रपति चुनावों के लिए विपक्षी चेहरे के रूप में महात्मा गांधी के पोते गोपालकृष्ण गांधी के नाम का सुझाव दिया है। उन्होंने मामले पर विचार करने के लिए समय मांगा है। वाम दलों ने मंगलवार को शरद पवार के साथ बैठक में पश्चिम बंगाल के पूर्व राज्यपाल गोपालकृष्ण गांधी के नाम का सुझाव दिया। पवार इस सुझाव के खिलाफ नहीं थे। सर्वप्रथम यह विपक्ष की प्रमुख पार्टियों की बौद्धिक क्षमता पर तो कटाक्ष है ही क्योंकि जो निर्धारण कांग्रेस जैसी प्रमुख विपक्षी पार्टियों को करना चाहिए था वो देश में विलुप्त हो चुके वाम दल कर रहे हैं।
यह कांग्रेस की डूबती नेतृत्व क्षमता का सबसे बड़ा उदाहरण है कि विश्वसनीयता के गहरे त्रास से जूझ रही पार्टी को न पार्टी के लिए चेहरा मिला और न ही देश के ‘प्रथम नागरिक’ के चुनाव के लिए एक प्रबल विपक्षी उम्मीदवार। सत्य तो यह है कि यह कांग्रेस ही नहीं पूरे विपक्ष के मुंह पर तमाचा है क्योंकि एक लंबे समय से यह पार्टियां मोदी विरोध में तो लड़ रही हैं पर उनके नीति निर्णायक न जाने कौनसे ग्रंथों को पढ़ कर ज्ञान दे रहे हैं। यह वो समय है जब मोदी विरोध वाले यह दल एकमत होकर एक राय कायम करते हुए अपना उम्मीदवार चुन लेते, पर अब सभी राजनीतिक पार्टियों का अपना मत है और कांग्रेस उन्हें एकसूत्र में बांधने में नाकाम साबित हो रही है।
ममता को केंद्रीय नेता बनना हैं, वह अपना अलग गुट चलाना चाह रही हैं, शरद पवार का मन कहीं और ही चल रहा है, केसीआर को भी प्रधानमंत्री ही बनना है, लेकिन कांग्रेस की मौजूदा हालत को देखते हुए यह प्रतीत हो रहा है कि शायद कांग्रेस पार्टी यह ‘भूल’ गई है कि आजादी के बाद से ही सबसे अधिक राष्ट्रपति चेहरे उसने ही दिए। कांग्रेस आलाकमान की टोली न जाने कौनसे सदमे से जूझ रही है कि इस बार राष्ट्रपति चुनाव में चेहरे को लेकर आश्वस्त ही नहीं हो पा रही। वाम दल जैसे विचार वाले दल अब कांग्रेस को सलाह देंगे तो उससे यह तो अंदाज़ा लग ही जाएगा कि आज कांग्रेस की स्थिति क्या हो गई है।
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विपक्ष के पास राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार ही नहीं है!
यूं तो गोपाल कृष्ण गांधी का नाम आना बड़ी बात नहीं थी क्योंकि जिस प्रकार NDA गठबंधन में वर्तमान उपराष्ट्रपति एम वेंकैया नायडू का नाम चल रहा है, उसी प्रकार गोपाल कृष्ण गांधी भी वर्ष 2017 उपराष्ट्रपति चुनाव में एम वेंकैया नायडू के प्रतिद्वंद्वी के तौर पर यूपीए गठबंधन के प्रत्याशी थे। गोपालकृष्ण गांधी ने ख़बरों और अटकलों पर कहा कि “मुझसे पूछा गया है कि अगर मेरे नाम पर आम सहमति बनती है तो क्या मैं ऐसे उम्मीदवार होने पर विचार करूंगा। मैंने कहा है कि मुझे इस महत्वपूर्ण सुझाव के बारे में सोचने के लिए कुछ समय चाहिए।” उन्होंने आगे कहा, “सभी संबंधितों के बीच विचार-विमर्श चल रहा है। इस समय कुछ ज्यादा कहना जल्दबाजी होगी।”
ज्ञात हो कि 77 वर्षीय पूर्व नौकरशाह गोपालकृष्ण गांधी ने दक्षिण अफ्रीका और श्रीलंका में भारत के उच्चायुक्त के रूप में भी काम किया है। बात वहीं की वहीं है कि जिस तरह और जिस परिवेश में गोपाल कृष्ण गांधी का नाम निकलकर सामने आया है उससे उनके नाम पर प्रश्नचिन्ह लगना स्वाभाविक है। और इस परिप्रेक्ष्य में सबसे बड़ा सवाल यही निकलता है कि क्या विपक्षी दलों में विश्वसनीयता की इतनी कमी है कि कोई प्रखर और राजनीतिक रूप से सक्रिय चेहरा राष्ट्रपति पद के लिए मिल ही नहीं रहा।
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