जून माह के अंत में एक नए मध्य पूर्वी सैन्य गठबंधन की अफवाहें उड़ान भरने लगीं। ऐसा लग रहा था मानो यहूदी, इस्लाम और ईसाई तीनों अब्राहमिक धर्म एक साथ आ रहे हों। तीनों धर्म जिनमें आपस में अधिक नहीं पटती वे आपसी मतभेद भूलकर साथ आने का विचार कर रहे हों। धर्मयुद्ध के ये प्रतिद्वंद्वी अरब नाटो नामक एक नया सैन्य गठबंधन बनाने की राह पर चलने पर विचार कर रहे हैं और उनके ये विचार इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं क्योंकि “अरब नाटो” में इज़राइल को शामिल किये जाने की भी सम्भावना है, जो इज़राइल और अरब पड़ोसियों के बीच बेहतर संबंधों में अगले कदमों का संकेत दे सकता है। लेकिन ये अफवाहें कितनी सच हैं? और यदि ये अफवाहें सच होती भी हैं तो भारत के लिए क्या परिणाम होंगे?
अरब नाटो बन रहा है
पिछले कुछ महीनों में समाचार पोर्टलों ने अरब दुनिया में एक नए सैन्य गठबंधन (अरब नाटो) के लिए जोर देना शुरू कर दिया है। जाहिर है उनमें से ज्यादातर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उनकी संबंधित सरकारों द्वारा नियंत्रित होते हैं। यदि सरकारें नहीं हैं तो वे उन विचारधाराओं द्वारा नियंत्रित होती हैं जो दुनिया में संघर्ष बनाये रखने की वकालत करती हैं। इन पोर्टलों में CNBC, Deutsche Welle, arabnews आदि शामिल हैं। बढ़ा हुआ मीडिया कवरेज दर्शाता है कि सरकारें नए गठबंधन (अरब नाटो) के लिए तैयार हैं।
खबरों की शुरुआत हुई थी जब जून माह में जॉर्डन के राजा ने पत्रकारों से कहा कि “वह मध्य पूर्व में नाटो के समान सैन्य गठबंधन का समर्थन करेंगे।” किंग अब्दुल्ला द्वितीय अमेरिकी मीडिया आउटलेट सीएनबीसी से बात करते समय कहा, “मैं उन पहले लोगों में से एक रहूँगा जो मध्य पूर्व नाटो का समर्थन करेंगे। हम सब एक साथ आ रहे हैं और विचार कर रहे हैं कि, ‘हम एक दूसरे की मदद कैसे कर सकते हैं?’ यह बदलाव मुझे लगता है, इस क्षेत्र के लिए बहुत ही असामान्य है।”
रिपोर्टों के अनुसार, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन, कतर, कुवैत, ओमान, मिस्र, जॉर्डन, सूडान, मोरक्को और इजराइल इस सैन्य गठबंधन का हिस्सा होंगे। वास्तव में तैयारी शुरू हो गई है क्योंकि इजरइल और अमेरिका अरब देशों को वायु रक्षा समझौते में शामिल होने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। हालाँकि अभी तक किसी समझौते पर हस्ताक्षर नहीं किये गए हैं।
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ईरान का खौफ
इन तीनों देशों में यदि कुछ सामान्य है तो वह है ईरान का उनमें भय। इस्लामिक देश होते हुए भी ईरान इन अब्राहमिक देशों से अलग है और इसके अलग होने का कारण है ईरान की जनसँख्या जो मुख्य रूप से शिया है। यानी ईरान में केवल 10% ही सुन्नी मुसलमान मौजूद हैं। जबकि इसके आसपास जो देश मौजूद हैं वे सभी सुन्नी बहुसंख्यक महाशक्ति है जो सऊदी अरब के पक्ष में बात करने वाले हैं। चौतरफा दुश्मनों से घिरे होने के बाद भी एक चीज़ है जो ईरान को संयुक्त रूप से सभी राष्ट्रों पर बढ़त देती है।
WION समाचार की एक रिपोर्ट के अनुसार, ईरान में कुल मिलाकर संयुक्त अरब अमीरात, सऊदी अरब, कुवैत, मोरक्को और मिस्र के समान ही सक्रिय कर्मचारी हैं। ग्लोबल फायरपावर इंडेक्स में भी इसे मात देने वाला देश सिर्फ मिस्र है। इसके अतिरिक्त, ईरान की परमाणु धमकी ने भी उसके विरोधी देशों की नींद उड़ा रखी है।
कट्टरपंथी इस्लामवाद पर अंकुश लगाना
अरब नाटो बनाने का दूसरा कारण है कट्टरपंथी इस्लामवाद का उदय। आने वाले कुछ दशकों में दुनिया अपनी गैस और तेल की ज़रूरतें पूरा करने के लिए अरब देशों पर निर्भर नहीं रहेगी। इसलिए, इन देशों को आय के एक नए स्रोत की आवश्यकता है और यह केवल निवेश के बल पर ही उत्पन्न किया जा सकता है। अब इनमें से अधिकांश देशों में निरंकुश शासन हैं। इसके बावजूद कंपनियां इन जगहों पर निवेश करती हैं क्योंकि उन्हें विशेष सुविधाएं प्रदान की जाती हैं।
अपने तेल राजस्व के सूख जाने के बाद ये देश उन भत्तों को प्रदान करने की स्थिति में नहीं होंगे। अंतत: इन देशों को एक स्थिर शासन की आवश्यकता होगी और हम सभी जानते हैं कि कट्टरपंथी इस्लामवाद और स्थिरता साथ-साथ नहीं चलते हैं। इस गठबंधन में कई देश ऐसे हैं जो इजराइल को मान्यता नहीं देते। कारण है कि इजराइल का इस्लामिक कट्टरपंथियों के खिलाफ कड़े कदम। खैर इस समय, अरब देशों को एकजुट होने की जरूरत है। हालाँकि उनका सैन्य गठबंधन उतना जरूरी नहीं है जितना कि उनका अपनी अर्थव्यवस्थाओं को बचाने के लिए एकजुट होना जरूरी है।
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भारत और अरब नाटो
एक तरफ भारत और इज़राइल प्रमुख सहयोगी हैं और सनातनियों और यहूदियों के बीच हमेशा से अच्छे संबंध रहे हैं। दूसरी ओर भारत और मध्य पूर्व कहने के लिए ही सही लेकिन रणनीतिक मित्र हैं। मध्य पूर्वी देशों और भारत के बीच व्यापार के अलावा कोई अंतर्निहित बंधन नहीं है। वास्तव में भारत और उन राष्ट्रों के सभ्यतागत लोकाचार एक दूसरे के बिल्कुल विपरीत हैं। भारत और ईरान के कई क्षेत्रों में मैत्रीपूर्ण संबंध हैं। विशेष रूप से भारत में कच्चे तेल के आयात और ईरान को डीजल के निर्यात में महत्वपूर्ण व्यापारिक संबंध हैं। भारत के संभवतः ‘अरब नाटो’ में मिलने वाले किसी भी देश से संबंध लगभग तटस्थ हैं। लेकिन फिर भी यह देखना दिलचस्प होगा कि भारत कैसे इन अब्राहमिक देशों के साथ संतुलन बैठाता है।
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