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“6 बार रण में पछाड़ खाई थी” कर्ण सबसे महान योद्धा नहीं था, वास्तविकता बिल्कुल उलट है

पिछले 70 वर्षों से एक एजेंडा के तहत कर्ण का महिमामंडन अबतक के सबसे महान योद्धा के रूप में किया जा रहा है लेकिन क्या यह सत्य भी है? इस विशेष लेख में समझिए कब-कब कर्ण ने रणभूमि में हथियार डाले।

Padma Shree Shubham द्वारा Padma Shree Shubham
20 December 2022
in इतिहास, ज्ञान
कर्ण योद्धा

SOURCE TFI

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युद्ध और योद्धा, इन दो शब्दों का महाभारत से बहुत गहरा संबंध है। धर्म स्थापना के उद्देश्य को साधने के लिए हुए इस महायुद्ध में एक से एक निपुण योद्धाओं ने भाग लिया, चाहे वो गुरु द्रोण हों, पितामह भीष्म हों, पांचों पांडव हों या फिर कौरव हों। इस युद्ध में दुर्योधन के पक्ष से लड़ने वालों की सूची में उसका मित्र कर्ण भी सम्मलित था। पिछले 70 वर्षों से एक एजेंडा के तहत कर्ण का महिमामंडन एक महायोद्धा के रूप में किया जा रहा है लेकिन प्रश्न यह है कि क्या कर्ण महान योद्धा था या फिर वामपंथ से प्रभावित लोगों ने साहित्य और सिनेमा के द्वारा कर्ण को अर्जुन से बड़ा योद्धा बताना शुरू कर दिया। रश्मिरथी जैसी रचनाएं कर्ण को योजनाबद्ध रूप से महान दानवीर और महान योद्धा के रूप में प्रस्तुत करती रही हैं जबकि वास्तव में केवल और केवल अर्जुन महाभारत के महान योद्धा और महानायक थे।

और पढ़ें- महाजनपदों का गौरवशाली इतिहास: भाग 3 – काशी

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कर्ण के शूरवीर योद्धा होने का भ्रमजाल

कर्ण का महिमामंडन करने वाले लोग यह भूल जाते हैं कि कर्ण कई बार अलग-अलग स्थानों पर बुरी तरह पराजित हुआ था और विपरीत परिस्थितियों में वह भाग खड़ा होता था। आइए, लोगों के बीच फैल चुके कर्ण के शूरवीर योद्धा होने के भ्रमजाल को भेदा जाए।

रंगभूमि, जहां कुरुवंश के राजकुमार और गुरु द्रोण के शिष्य अर्थात कौरव और पांडव अपने युद्ध कौशल का प्रदर्शन कर रहे थे। तभी वहां एकाएक पहुंचे कर्ण का आमना-सामना अर्जुन से होता है। इस रंगभूमि में गुरु द्रोण कर्ण को अपने धनुर्विद्या का प्रदर्शन करने से मना कर देते हैं क्योंकि कर्ण सूत पुत्र था। परंतु क्या यहीं सत्य है? बस इसी घटना को उठाकर ऐसी विचारधारा को कुछ लोगों ने प्रसारित किया कि किंचित गुरु द्रोण को यह पता था कि कर्ण अर्जुन से बड़ा योद्धा है, इसीलिए उसे सूत पुत्र कहकर रंगभूमि से जाने को कह दिया। लेकिन यहां आपको यह समझना होगा कि गुरु द्रोण का अपना एक गुरुकुल था जहां कुरू राजकुमार उनके शिष्य थे, जिन्हें उन्होंने शिक्षा दी। उनके इन्हीं शिष्यों के युद्ध कौशल का प्रदर्शन रंगभूमि में हो रहा था जहां स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने की होड़ में कर्ण बिना आमंत्रण के पहुंच गया था। यहां कोई तुक नहीं है कि अपने शिष्यों के बीच गुरु द्रोण किसी और को युद्ध कौशल का प्रदर्शन करने का आदेश देते। अतः उसे रंगभूमि में द्रोण ने किसी भी तरह के युद्ध कौशल का प्रदर्शन करने से कर्ण को स्पष्ट रूप से मना कर दिया।

और पढ़ें- जानिए भारतीय नौसेना दिवस के पीछे का गौरवशाली इतिहास, जब कांप गया था पूरा पाकिस्तान

गुरु दक्षिणा

आगे बढ़ते हैं- कुरू राजकुमारों की शिक्षा पूर्ण होने के बाद गुरू द्रोण ने शिष्यों से गुरु दक्षिणा में मांगा कि पांचाल राज्य पर आक्रमण कर वहां के राजा द्रुपद को उनके अधीन किया जाए। ऐसे में दुर्योधन ने कर्ण को साथ लेकर पांचाल राज्य पर आक्रमण कर दिया। परन्तु पांचाल की विशाल सेना का नेतृत्व द्रुपद पुत्र धृष्टद्युम्न और शिखंडी कर रहे थे। इन दोनों ने कर्ण और दुर्योधन को बुरी तरह से परास्थ किया और कर्ण तो मैदान छोड़कर ही भाग गया। वहीं दूसरी ओर भीम और अर्जुन ने सेना की एक छोटी सी टुकड़ी लेकर पाचांल पर आक्रमण किया और अपने अद्भुत पराक्रम का प्रदर्शन करते हुए पांचाल की बड़ी सेना को हराकर महाराज द्रुपद को बंदी बना लिया और गुरु द्रोण के चरणों में ला दिया। इस तरह यहां भी कर्ण भाग खड़ा हुआ।

और पढ़ें- गांधी इरविन समझौता कब एवं क्यों हुआ? सम्पूर्ण इतिहास

राजसूय यज्ञ

आगे बढ़ते हैं- युधिष्ठिर राजसूय यज्ञ करते हैं, इस यज्ञ के बाद वो महाराजाधीराज हो जाते। महाराजाधीराज बनने के लिए आवश्यक था कि भारतवर्ष के सभी राजा उन्हें कर दें और इसके लिए युधिष्ठिर ने अपने चारों भाइयों को चारों दिशाओं में भेज दिया। एक राज्य अंगप्रदेश भी था जिसका राजा कर्ण था जिससे कर मांगने भीम पहुंचे थे। लेकिन कर्ण ने इसका विरोध किया, ऐसे में भीम से उसे युद्ध करना पड़ा। इस समय भीम ने कर्ण के धनुष को उसके ही गर्दन में डाला और धनुष की प्रतंच्या खींचकर छोड़ दी जिससे कर्ण को अत्यधिक चोट लगी। इस तरह बड़ी ही सरलता से भीम ने कर्ण को हरा दिया। अब सोचिए कि भीम गदाधारी थे लेकिन अपनी चतुराई से उन्होंने कर्ण को तीर धनुष के युद्ध में भी हरा दिया और उससे कर लेकर अपना कार्य भी पूरा किया।

और पढ़ें- केरल की राजधानी क्या है दर्शनीय स्थल एवं इतिहास

गंधर्वों से सामना

और आगे बढ़ते हैं- पांडव वनवास पर थे, कर्ण ने दुर्योधन के साथ मिलकर षड्यंत्र रचा कि मित्र यही सही अवसर है, क्यों न अर्जुन का अंत कर दिया जाए। इस षड्यंत्र को साधने के लिए दुर्योधन कर्ण के भरोसे पांडवों को मारने के लिए निकल गया। रास्ते में उनका सामना गंधर्वों से होता है जो आक्रमण से पहले ही दुर्योधन और उनके साथियों को बंदी बना लेते हैं। इन गंधर्वों से कर्ण बुरी तरह पराजित हो जाता है। वह वहां से भाग खड़ा होता है और पितामह भीष्म को कौरवों के बंधी बनने की सूचना देता है जिसके बाद पितामह युधिष्ठिर को संदेश भेजकर कहते हैं कि हालांकि तुम्हारे साथ कौरवों ने ठीक नहीं किया परन्तु तुम्हें फिर भी अपना धर्म निभाते हुए अपने भाइयों कि रक्षा करनी चाहिए। अतः युधिष्ठिर के आदेश पर अर्जुन दुर्योधन और उसके साथियों को छुड़ाने के लिए गधर्वों से युद्ध करने जाते हैं लेकिन अर्जुन कितने बड़े वीर हैं यह वो गधर्व जानते थे इसलिए उन्होंने अर्जुन से युद्ध न करने का विचार किया और दुर्योधन समेत उसके भाइयों को मुक्त कर दिया। यहां भी कर्ण भाग खड़ा हुआ, वह अपमानित हुआ सो अलग।

विराटनगर में बृहन्नला

और आगे बढ़ते हैं- अब पांडव अज्ञातवास में हैं और विराटनगर में भेष बदलकर वास कर रहे हैं। विराट नगर में गइयों को चुरा लेना या कई सारी गइयों को भगा ले जाना एक बहुत बड़ी घटना होती थी। दुर्योंधन ने कर्ण के साथ मिलकर गइयां चुराई जिसे बचाने के लिए युद्ध हुआ। विराट में कोई बड़ा योद्धा नहीं था ऐसे में इस युद्ध में बृहन्नला का भेष धरे अर्जुन ने ही विराट की तरफ से युद्ध लड़कर कर्ण को अपने बाणों से बिंध दिया। इस तरह यहां भी कर्ण अर्जुन से हार जाता है और दुर्योधन को लेकर वह वहां से भी भाग खड़ा होता है। वो बात और है कि अर्जुन ने अज्ञातवास के कारण अपनी पहचान छुपाते हुए सबके सामने युद्ध में विजयी होने का श्रेय विराट के राजकुमार उत्तर को दे देता है जो दुर्योधन की बड़ी सी सेना को देखकर युद्ध के समय अचेत हो गया था।

और पढ़ें- महाजनपदों का गौरवशाली इतिहास- भाग 2: मगध महाजनपद

अर्जुन पुत्र अभिमन्यु

अब आते हैं महाभारत के युद्ध के उस क्षण में जब अर्जुन पुत्र अभिमन्यु ने कौरवों की सेना की नाक में दम कर दिया था। कौरव सेना में जितने भी रथी, महारथी, अधिरथी थे चाहे वो गुरु द्रोण हों, अश्वत्थामा हो, दुःशासन, दुर्योधन, शकुनी, कर्ण ही क्यों न हो अभिमन्यु ने सभी को अत्यंत चोटिल किया था। अभिमन्यु को छल से न मारा गया होता तो आधी से अधिक कौरव सेना का अंत उसी दिन हो जाता। ऐसे में तथाकथित सबसे बड़ा योद्धा कर्ण भी सीधे युद्ध में तब वीर अभिमन्यु के प्रहारों को झेल नहीं पा रहा था, उसकी भी स्थिति पस्त थी। यहां पर भी कर्ण के वीर होने की पोल खुलती है जब वह अपने से अत्यंत छोटी आयु के योद्धा से बुरी तरह हार जाता है।

और पढ़ें- केदारनाथ कहां है एवं कैसे पहुंचे? कथा, इतिहास, एवं दर्शन के नियम

अर्जुन और कर्ण का निर्णायक युद्ध

अब आते हैं युद्ध के उस क्षण में। सालों से इतिहासकरों और टीवी धारावाहिकों के माध्यम से लोगों के मस्तिष्क में इस बात को बैठा दिया गया है कि कर्ण की मृत्यु से पहले कर्ण और अर्जुन में बहुत बड़ा युद्ध हुआ और दोनों एक दूसरे पर भारी पड़ रहे थे लेकिन सत्य यह नहीं है। सत्य तो यह है कि अर्जुन ने इस निर्णायक युद्ध में कर्ण को पहले ही क्षत-विक्षत कर दिया था, उसके धनुष की प्रत्यंचा कई बार काट चुके थे, उसके रथ की पताका काट चुके थे। अर्थात कर्ण को मारने से पहले ही अर्जुन ने कर्ण के सामने अपनी श्रेष्ठता सिद्ध कर दी थी। ध्यान दीजिए कि कर्ण के रथ का पहिया भूमि में धसने की घटना होती है और कर्ण एक अपरिपक्व योद्धा की भांति रथ से उतरकर भूमि में धंसे रथ के पहिए को निकालने लगता है। उसकी मति ऐसी फिरी कि जो काम उसके सारथी को करना चाहिए था, युद्ध छोड़कर उस काम वो करने लागा। इतना ही नहीं गुरु से छल पूर्वक शिक्षा ग्रहण करने पर दंडस्वरूप उसे जो भगवान परशुराम से श्राप मिला था उसका प्रभाव भी दिख रहा था। अब कर्मों का फल भी कभी न कभी तो मिलेगा ही। श्रीकृष्ण जानते थे कि यहां अवसर से चुकना नहीं है, अतः वो अर्जुन को बाण चलाने को कहते हैं और इस तरह इस युद्ध में भी कर्ण अर्जुन से हारते हुए अंत को प्राप्त होता है।

अब आपको यह भलिभांति ज्ञात हो गया होगा कि कर्ण महान या बड़ा युद्धा नहीं बल्कि एक साधारण योद्धा था। वीर और महान योद्धा अर्जुन से तो कर्ण की तुलना ही नहीं की जा सकती है।

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