आपको क्या लगता है, हमारे भारतीय सिनेमा, विशेषकर बॉलीवुड पर किसका राज रहा है?
ISI का? सुनने के लिए अच्छा, पर नहीं!
हाजी मस्तान या दाऊद इब्राहिम का? इनका प्रभाव अवश्य था, परन्तु ये भी पूरी तरह भारतीय फिल्म उद्योग को अपनी जकड़ में नहीं रख पाए।
नेहरू गाँधी परिवार? इनके साथ भी फिल्म उद्योग का सम्बन्ध उतार चढ़ावों से भरा था!
तो आखिर वो संस्था या शक्ति थी कौन, जिसका प्रभाव आज भी कई मायनों में भारतीय सिनेमा, विशेषकर बॉलीवुड पर विद्यमान है?
इस लेख में जानिये उस संस्था के बारे में, जिसने लगभग ४ दशक तक पूरे बॉलीवुड को और अधिकांश क्षेत्रीय उद्योगों को अपनी जेब में रखा। ये कथा है उस सोवियत संघ के प्रभाव की, जिस पर आज भी कई लोग चर्चा करने से कतराते हैं।
जुबली का साहसी दांव
एमेज़ॉन प्राइम पर प्रदर्शित भारतीय वेब सीरीज़ “जुबली” कई कारणों से याद की जाएगी। परन्तु जिस पक्ष पर सबसे कम ध्यान दिया गया होगा, वो था इस सीरीज़ में अमेरिका और सोवियत संघ का भारतीय सिनेमा पर वर्चस्व को लेकर तनातनी। दोनों ने अपने दांव चलाये, दोनों ने दबाकर निवेश किया, परन्तु रणनीतिक फंडिंग और ऑपरेशंस के माध्यम से ये सोवियत थे, जिन्होंने इस वैचारिक द्वन्द में विजय प्राप्त की!
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पूर्व केजीबी एजेंट यूरी बेज्मेनोव के संस्मरणों में भारत में सोवियत संघ की इस अनोखी रणनीति के बारे में जानकारी मिलती है। बेज़मेनोव बताते हैं कि उनके केजीबी प्रशिक्षकों ने स्थापित, कंजर्वेटिव मीडिया, प्रभावशाली फिल्म निर्माताओं, बुद्धिजीवियों और अकादमिक सर्कल्स को लक्षित करने पर जोर दिया। स्वयं केजीबी वाले वामपंथियों पर पूर्ण विश्वास नहीं रखते थे, क्योंकि उनके लिए इनके प्रभाव में आकर वे कुछ ऐसा भी भी जान सकते थे, जो केजीबी की मंशाओं के लिए हानिकारक होता।
सोवियत का प्रभाव और कपूर खानदान का योगदान
सोवियत प्रभाव वित्तीय सहायता से कहीं आगे तक बढ़ गया। धीरे धीरे यूएसएसआर सक्रिय रूप से यह तय करने लगा कि भारतीय सिनेमा की थाली में क्या परोसा जाएगा, अर्थात स्क्रिप्ट से लेकर वैचारिक दृष्टिकोण इत्यादि, सब पर इनका प्रभाव झलकने लगा। जो भी इनके विपरीत जाने का प्रयास मात्र भी करता, उनसे निपटने हेतु केजीबी के अपने तरीके थे। रणनीतिक गठबंधनों और साझेदारियों के माध्यम से, सोवियत हितों ने अपने स्वयं के समाजवादी सिद्धांतों के साथ संरेखित करते हुए, बॉलीवुड प्रस्तुतियों में एक विशेष वैचारिक झुकाव सुनिश्चित किया।
अब बात सोवियत संघ का भारतीय सिनेमा पे प्रभाव की हो, और कपूर खानदान की चर्चा न हो, ऐसा हो सकता है क्या? “आवारा” से “अनाड़ी” अपनी कालजयी क्लासिक्स के लिए जाने जाने वाले कपूर की फिल्में सोवियत दर्शकों को बहुत पसंद आईं। कपूर की कार को सोवियत संघ द्वारा उठाए जाने और बिना वीज़ा के यूएसएसआर में उनके कथित प्रवेश से संबंधित किंवदंतियाँ इस अनूठे बंधन के आसपास के रहस्य को और बढ़ा देती हैं। परन्तु अगर क्वेंटिन टैरेंटीनो के विश्वप्रसिद्ध फिल्म “इंगलोरियस बास्टर्ड्स” के एक संवाद को इन परिस्थितियों में परिभाषित करें तो, “संक्षेप में, ऐसी कथा जो अविश्वसनीय लगे, वो होती नहीं!”
“सोवियत शैली” में बुद्धिजीवियों को उँगलियों पर नचाना
अपने ऑडियंस बेस को विस्तृत करने को आतुर अधिकतम भारतीय फिल्ममेकर सोवियत संघ और उसके अंतर्गत आने वाले देशों की ओऱ ही अपना ध्यान केंद्रित करते थे। क्या “संगम”, क्या “डिस्को डांसर”, सोवियत संघ में चल गई, तो समझो जग जीत लिया! सोवियत प्रशासन भी इस भ्र्म को बढ़ावा देने में कोई प्रयास अधूरा नहीं छोड़ता था। इस सहजीवी रिश्ते ने भारतीय सिनेमा को बड़े पैमाने पर दर्शकों तक पहुंच हासिल करने की अनुमति दी, जबकि सोवियत को अपनी पसंदीदा कहानियों को प्रदर्शित करने के लिए एक मंच प्रदान किया। परिश्रम भारतीयों का, लाभ सोवियत संघ का!
बेज़मेनोव के खुलासे से भारतीय सिनेमा को प्रभावित करने के सोवियत संघ के प्रयासों पर भी प्रकाश पड़ता है। उदाहरण के लिए मॉस्को जाने वाले भारतीय कलाकार, चाहे कवि हो या फ़िल्मकार, का स्वागत मदिरा से किया जाता था। इससे उनकी जागरूकता और जिज्ञासा प्रभावी रूप से कम हो जाती थी। इस रणनीति का उद्देश्य नैरेटिव को नियंत्रित करना और भारतीय सिनेमा में सोवियत प्रयासों का अनुकूल कवरेज सुनिश्चित करना था।
वर्ष 1991 तक भारतीय सिनेमा में सोवियत संघ के अलावा कोई शक्ति पत्ता तक नहीं हिला सकती थी. परन्तु सोवियत संघ के विघटन ने सब कुछ बदल दिया। इस कदम ने बॉलीवुड को विविध विषयों, शैलियों और अंतर्राष्ट्रीय बाजारों का पता लगाने की अनुमति दी, जिससे आने वाले वर्षों में इसका वैश्विक प्रभुत्व बना रहा। परन्तु इसका एक साइड इफेक्ट भी था : अब तक सुप्त पड़े भारतीय अंडरवर्ल्ड का बढ़ता प्रभाव!
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1991 तक भारतीय सिनेमा पर सोवियत संघ का प्रभाव बॉलीवुड के इतिहास में एक दिलचस्प और अक्सर अनदेखा किया गया अध्याय है। रणनीतिक फंडिंग, आख्यानों के निर्देशन और रिश्तों की सावधानीपूर्वक खेती के माध्यम से, सोवियत ने उद्योग के प्रक्षेप पथ को आकार दिया और भारतीय सिनेमा पर एक अमिट छाप छोड़ी। यह कहना गलत नहीं होगा कि अंडरवर्ल्ड अपनी जगह, परन्तु सोवियत प्रशासन ने सांस्कृतिक और नैतिक रूप से हमारे भारतीय सिनेमा की ऐसी छवि, जिससे उभरने में कई दशक लगे, और समाप्त होने में कुछ और समय लगेगा।
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