‘मियां-टियां’ या ‘पाकिस्तानी’ जैसे शब्द सुनने में भले ही ठीक न लगें, लेकिन भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 298 के तहत यह धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाला अपराध नहीं माना जा सकता। सुप्रीम कोर्ट ने झारखंड के एक मामले में यह टिप्पणी करते हुए स्पष्ट किया कि इस प्रावधान के तहत आरोपी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। अदालत ने कहा कि हालांकि यह टिप्पणी अनुचित थी, लेकिन इसे आपराधिक मुकदमे के दायरे में लाने के लिए जरूरी कानूनी मानदंड पूरे नहीं होते। इसी आधार पर शीर्ष अदालत ने ऐसा कहने वाले हिन्दू व्यक्ति को बाइज्जत बरी कर दिया।
जानें क्या है पूरा मामला
सुप्रीम कोर्ट ने झारखंड के बोकारो जिले में दर्ज एक मामले की सुनवाई के दौरान अहम टिप्पणी की। यह मामला 2020 का है, जब एक सरकारी कर्मचारी, जो उर्दू ट्रांसलेटर के तौर पर कार्यरत था, ने एक हिन्दू व्यक्ति हरी नंदन सिंह के खिलाफ FIR दर्ज करवाई थी। आरोप लगाया गया था कि सिंह ने उनकी धार्मिक भावनाओं को आहत किया है। इस शिकायत के आधार पर पुलिस ने चार्जशीट दाखिल की और उन पर धार्मिक भावनाएँ भड़काने और शांति भंग करने जैसे गंभीर आरोप लगाए। इसके बाद मजिस्ट्रेट कोर्ट ने मामले को आगे बढ़ाते हुए कहा कि सिंह के खिलाफ मुकदमा चलाने के लिए पर्याप्त सबूत मौजूद हैं और उन्हें कोर्ट में पेश होने का आदेश दिया गया।
हरी नंदन सिंह ने इस आदेश को चुनौती देते हुए जिला अदालत में अपील दायर की और केस खारिज करने की माँग की, लेकिन अदालत ने उनकी याचिका खारिज कर दी। इसके बाद उन्होंने झारखंड हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, लेकिन वहाँ से भी उन्हें कोई राहत नहीं मिली। जब हाई कोर्ट ने उनकी अपील खारिज कर दी, तो उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की।
इस मामले की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस नागरत्ना और जस्टिस सतीश शर्मा की बेंच ने की। अदालत ने FIR का विश्लेषण करने के बाद कहा, “आरोपों की समीक्षा से स्पष्ट होता है कि IPC की धारा 353, 298 और 504 के तहत मुकदमा दर्ज किया गया, लेकिन इन धाराओं के लिए आवश्यक सबूत ही नहीं हैं। सिंह ने कोई हमला नहीं किया था, इसलिए IPC की धारा 353 उन पर लागू नहीं होती।”
इसके अलावा, कोर्ट ने यह भी कहा कि हरी नंदन सिंह पर ‘मियाँ-तियाँ’ और ‘पाकिस्तानी’ कहने का आरोप है, लेकिन यह बयान भले ही अनुचित माना जा सकता है, इसे धार्मिक भावनाएँ आहत करने की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। अंततः सुप्रीम कोर्ट ने न केवल हरी नंदन सिंह को सभी आरोपों से मुक्त कर दिया, बल्कि झारखंड हाई कोर्ट के उस आदेश को भी रद्द कर दिया, जिसमें उनके खिलाफ मुकदमा चलाने की बात कही गई थी।