औरंगज़ेब के मुरीदों में सबसे ताज़ा नाम समाजवादी विधायक अबू आज़मी का जुड़ गया है। अब वो महाराष्ट्र के विधानसभा अध्यक्ष राहुल नार्वेकर को पत्र लिखकर सफाई दे रहे हैं कि जिस बयान के आधार पर उन्हें बजट सत्र के लिए निलंबित किया गया है, वो बयान मीडिया ने तोड़-मरोड़कर पेश किया है। अबू आज़मी को याद आ गया है कि मीडिया ने उनसे पूछा था कि असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने कांग्रेस के राहुल गाँधी की तुलना औरंगज़ेब से की है और इसपर उनका क्या कहना है? उन्होंने इतिहासकारों के लिखे के आधार पर कहा था कि औरंगज़ेब एक योग्य प्रशासक थे। उनका शिवाजी से संघर्ष धर्म के आधार पर नहीं बल्कि सत्ता और भू-भाग के लिए हुआ था। देश क सीमाओं के हिसाब से भी औरंगज़ेब का शासन अफगानिस्तान से बर्मा (अब म्यांमार) तक फैला हुआ था। इस लिहाज से भी उन्हें औरंगज़ेब बड़ा शासक दिखा। जिन कथित ‘इतिहासकारों’ के नाम उन्होंने गिनवाए हैं, उनमें राम पुनियानी जैसे लोग हैं जो कहीं से इतिहासकार होते हैं, इसपर भी संदेह है। समाजवादी पार्टी भी अबू आज़मी को मिल रही धमकियों का बहाना बनाकर आज़मी के लिए ज़ेड श्रेणी की सुरक्षा मांगने उतर आई है।
औरंगज़ेब हिंदुओं (काफिरों) पर जजिया लगाने वाले मुगल बादशाहों में से एक था। हिंदुओं के साथ इतनी लूट करने के बाद भी जब औरंगज़ेब की दक्कन में दौड़ते-भागते मौत हुई, उस वक्त मुगल खजाना खाली था। असंतोष कितना रहा होगा, इसका अनुमान आप इस बात से लगा सकते हैं कि जब बहादुर शाह (प्रथम) औरंगज़ेब की मौत के बाद 1707 में गद्दी पर बैठा, तो उसकी आयु करीब 65 वर्ष की हो चुकी थी। किसी और किताब के बदले औरंगज़ेब का दौर समझने के लिए इतिहासकार उसी के दौर की लिखी हुई किताब ‘मसीर-ए-आलमगीरी‘ के वर्णन का सहारा लेते हैं।
इसे साकी मुस्तैद खान ने लिखा था जिसे बाद में बहादुर शाह (1707-1712) और इनायतुल्ला खान का प्रश्रय भी मिलता रहा था। इनायतुल्ला खान औरंगज़ेब के प्रिय खानसामों में से एक था और उसक अम्मा हफिज़ा बेगम औरंगज़ेब की बेटी जेबुन्निसा को कुरआन और फारसी पढ़ाने के लिए नियुक्त थी। यानी आज के दौर के किसी तथाकथित इतिहासकार के लिखे की तुलना में उसी दौर की औरंगज़ेब की चिट्ठियों-फरमानों का संकलन, उस दौर के इतिहासकार कहीं अधिक भरोसे के होंगे। अच्छी बात ये है कि इसमें से कुछ का अनुवाद भी विख्यात इतिहासकार सर यदुनाथ सरकार ने कर रखा है।
मुगलों के दौर में गौर करने लायक यह भी है कि वो अपने दौर का इतिहास लिखवाते थे। जैसे बाबर-नामा, हुमायूँ-नामा, अकबर-नामा, तुजुक-ए-जहाँगीरी और शाहजहाँ के काल का पादशाह-नामा मिलता है। औरंगज़ेब के काल में अंतर यह हुआ कि जब औरंगज़ेब ने अपने भाइयों को कत्ल करके अपने अब्बा को गिरफ्तार किया और सत्ता संभाली तो आलमगीर-नामा लिखा जाना शुरू तो हुआ था, मगर दस वर्ष बाद औरंगज़ेब ने इसका काम खुद ही रुकवा दिया। इस वजह से उसके पांच दशकों के लगभग के शासन में से दस वर्षों का ही अधिकारिक लेखा जोखा हुआ है। इसका ज़िक्र भी ‘मसीर-ए-आलमगीरी’ में ही मिल जाता है जहाँ दस वर्षों का इतिहास खत्म होने पर लिखा गया है कि यहाँ दूसरी किताब से लिया हिस्सा समाप्त होता है। ये ‘मसीर-ए-आलमगीरी’ साफ-साफ बताती है कि कैसे 1670 में औरंगज़ेब की फौजों ने मथुरा के केशव देव मंदिर का विध्वंस किया गया। ऑड्रे ट्रूस्के ने इस किताब में लिखे को यथासंभव सेक्युलर बनाकर पेश करने की पूरी कोशिश की है। उसकी लीपापोती की कोशिशों के बाद भी इतिहास छुप नहीं पाया है।
औरंगज़ेब द्वारा काशी विश्वनाथ मंदिर के विध्वंस की कहानी उस काल के विश्वसनीय मराठा इतिहासकारों ने भी लिखी है, इसलिए उससे तो इनकार ही नहीं किया जा सकता। बड़े मंदिरों की बात करें तो औरंगज़ेब ने 1645 में चिंतामणि मंदिर को तुड़वाकर उसकी जगह ‘कुवत-उल-इस्लाम’ मस्जिद बनवाने का आदेश भी दिया था। अपने इलाके के सभी सूबेदारों को उसने काफिरों के देवालय और विद्यालय नष्ट करने के आदेश दे रखे थे। औरंगज़ेब के काल में हिन्दू पुरुषों का धर्म परिवर्तन करवाने पर चार रुपये और स्त्रियों पर दो रुपये मिलते थे, इसके आदेश भी संग्रहालयों में मिल जाते हैं।
इनके अलावा अगर विख्यात मंदिरों की बात की जाए तो दिल्ली का कालकाजी विधानसभा क्षेत्र अभी हाल ही में चर्चा में था। आम आदमी पार्टी की आतिशी वहां से चुनाव जीती थी। इस क्षेत्र की ख्याति लोटस टेम्पल और नेहरु प्लेस के अलावा कालकाजी मंदिर के लिए भी है। इस मंदिर को तोड़ने के आदेश औरंगज़ेब ने इसलिए दिए थे क्योंकि वहाँ काफ़िर इकठ्ठा होते थे और बिद्दत (गैर इस्लामिक हरकतें) होती थीं। इस जीर्ण मंदिर का पुनः निर्माण राजमाता अहिल्याबाई होल्कर ने औरंगज़ेब के मरने के वर्षों बाद फिर से करवाया था। अभी जो मंदिर हमें दिखता है, वो राजमाता का बनवाया हुआ ही है। मुग़ल दौर की विरासत ये रही कि करीब 800 वर्षों में दिल्ली में किसी नए मंदिर का निर्माण नहीं हुआ था। बिड़ला मंदिर दिल्ली में करीब आठ सौ वर्षों में बना पहला बड़ा मंदिर है।
आमतौर पर राजाओं के गुजरने के वर्षों बाद भी उनके बनवाए सड़क-नहरों या जनहित के कार्यों के जरिये उन्हें याद किया जाता है। मौर्य काल में जो उत्तरा पथ और दक्षिणा पथ होते थे, उनका पुनः निर्माण शेरशाह सूरी ने करवाया। ऐसे ही चोल साम्राज्य के काल में बने बांधों के जरिये उन्हें याद किया जा सकता है। ऐसे किसी निर्माण के लिए मुगलों को और विशेषकर औरंगजेब को तो बिलकुल याद नहीं किया जा सकता। जबरन इतिहास पर लीपापोती की जो कोशिश तथाकथित प्रगतिशील करते हैं, वो सवालों के सामने ठहर नहीं पाते। ऐसी कोशिशें आयातित विचारधारा वालों को बंद कर देनी चाहिए।