श्रीराम की जन्मभूमि अयोध्या और लक्ष्मणपुरी (लखनऊ) के निकटवर्ती क्षेत्र अवध में उन्नाव जनपद का कुछ हिस्सा बैसवारा कहलाता है। इसी वीरभूमि में राव रामबख्श सिंह का जन्म हुआ। वे बैसवारा के संस्थापक राजा त्रिलोक चन्द्र की 16वीं पीढ़ी में थे।
1840 में राव रामबख्श सिंह ने डौडियाखेड़ा रियासत का राज्य संभाला। यह वह समय था, जब अंग्रेज अपने साम्राज्य का विस्तार छल-बल से कर रहे थे और देश में स्वाधीनता संग्राम तेज़ हो रहा था।
स्वतंत्रता संग्राम में योगदान
रानी लक्ष्मीबाई, बहादुरशाह जफर, नाना साहब, तात्या टोपे के नेतृत्व में देशभर में संगठित हो रहे संग्राम में राव साहब भी शामिल हुए। 31 मई 1857 को अंग्रेजों के विरुद्ध सैनिक छावनियों में हल्ला बोलने का समय निर्धारित था; लेकिन विस्फोट समय से पहले हो गया, जिससे अंग्रेज सतर्क हो गए।कानपुर के नाना साहब के अधिकार के बाद भागे 13 अंग्रेज बक्सर के शिव मंदिर में छिपे। ठाकुर यदुनाथ सिंह ने उन्हें सुरक्षा देने का वादा किया, पर अंग्रेजों ने गोली चला दी और यदुनाथ सिंह मारे गए। क्रोधित लोगों ने मंदिर को आग लगाई।
बैसवारा पर अंग्रेजों का हमला
मई 1858 में सर होप ग्राण्ट के नेतृत्व में अंग्रेजों ने बैसवारा में बड़ी फौज भेजी।राव रामबख्श सिंह ने डौडियाखेड़ा दुर्ग में वीरता से युद्ध किया, लेकिन अंग्रेजों की सामरिक शक्ति के कारण पीछे हटना पड़ा।इसके बाद भी राव साहब गुरिल्ला पद्धति से अंग्रेजों को परेशान करते रहे।कुछ परिचितों की देशद्रोही हरकतों के कारण राव साहब काशी में गिरफ्तार हो गए।
फाँसी और बलिदान
रायबरेली के तत्कालीन जज डब्ल्यू. ग्लाइन के सामने नाटकिया मुकदमे में राव साहब को मृत्युदंड दिया गया। 28 दिसंबर 1861 को बक्सर के वटवृक्ष पर राव रामबख्श सिंह को फाँसी दी गई। फाँसी की रस्सी दो बार टूट गई, लेकिन राव साहब ने निडर होकर बलिदान स्वीकार किया। वे डौडियाखेड़ा दुर्ग के कामेश्वर महादेव और बक्सर की माँ चन्द्रिका देवी के उपासक थे।
विरासत
राव रामबख्श सिंह भले ही शारीरिक रूप से चले गए, लेकिन डौडियाखेड़ा दुर्ग एक तीर्थ बन गया। आज भी अवध के लोकगायक उनके वीरता और बलिदान का गान करते हैं।
































