28 मई 1998 को दोपहर सवा तीन बजे, बलोचिस्तान प्रांत में छगई जिले के पास रस कोह पहाड़ ने एक ठग देश को एक परमाणु शक्ति में तब्दील होते देखा। पाकिस्तान ने भारत के दूसरे परमाणु परीक्षण के जवाब में पहला परमाणु निरीक्षण किया।
28 मई 1998 की दोपहर को छगई टेस्ट साइट पर पाकिस्तान परमाणु ऊर्जा आयोग की देखरेख में पाँच भूमिगत परमाणु परीक्षण कराये गए। साइट से तकरीबन 10 किलोमीटर दूर एक निरीक्षण पोस्ट बनाया गया, जिसमें गणित और सैद्धान्तिक भौतिकी ग्रुप के सदस्यों [जिनका नेतृत्व डॉ. मसूद अहमद और असगर कादिर कर रहे थे] को परमाणु हथियार की उपज का परीक्षण करना था।
परमाणु बम परीक्षण के सटीक निर्धारण एक चुनौतीपूर्ण प्रक्रिया है, क्योंकि इसके अलग अलग पैमाने है। टीपीजी ने सम्पूर्ण परीक्षण की उपज 30-36 किलोटन रखी। वहीं दूसरी तरफ अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक समुदाय ने इस गिनती को स्वीकारने से ही साफ मना कर दिया और कहा की यह 6-13 किलोटन की ही उपज दे पाया है।
पीएईसी से मिले वैज्ञानिक डाटा के अनुसार, ऐसा लगता है की पाकिस्तान ने भारत के विरुद्ध किसी थर्मोंन्यूक्लियर यंत्र का परीक्षण नहीं कर रहा था। इशफाक अहमद के अनुसार पीएईसी के आर्थिक उद्देश्यों के लिए एक हाइड्रोजन संयंत्र बनाने की कोई मंशा नहीं थी, जबकि 1974 में, तत्कालीन टीपीजी निदेशक, अब्दुस सलाम को रियाजुद्दीन ने इस प्लान के बारे में बताया भी था। शुरू से ही पीएईसी अपना सारा ध्यान छोटे, सामरिक परमाणु अस्त्र बनाने में ज़ाया करती थी।
वर्तमान में पाकिस्तान दुनिया का एकमात्र देश है, जिसके पास आत्मघाती, सामरिक परमाणु बम का स्वामित्व प्राप्त है। ये हत्फ IX या नास्र मिसाइल पर तैनात है, और इसकी मारक क्षमता 37 मील तक जाती है।
निस्संदेह ये पाकिस्तान की फिदायीन मानसिकता को दर्शाता है, पर इससे भी ज़्यादा दिलचस्प बात यह है की इस काबिलियत का भी क्या होता, अगर ‘ऑपरेशन काहूटा’ को अंजाम दिया गया होता।
1974 में जब पोखरण में प्रथम परीक्षण सफल हुआ था, तभी रॉ समझ गया था की भारत की उभरती परमाणु शक्ति को देखते हुये पाकिस्तान भी पीछे रहने वाला नहीं है, पर परमाणु बम के लिए आवश्यक सामग्री और निधि इकट्ठा करना कोई हाथ का मेल तो है नहीं, की भैया 5-6 साल में ही हो जाये। जैसे कनाडा और यूएस ने भारत के साथ सहयोग किया, फ़्रांस ने पाकिस्तान के साथ मिराज 3 फाइटर प्लेन का सौदा मंजूर किया।
पर फ्रेंच सहायता खुलेआम हुआ था, जिसमें मुख्य केंद्र था बिजली पहुंचाना, जबकि पर्दे के पीछे से चीन पाकिस्तान की मदद कर रहा था, जिसमें उत्तरी कोरिया भी साथ दे रहा था। एक्यू खान ने प्योंगयांग की यात्रा की, तो मोस्साद ने उनके पीछे कुछ गुप्तचर लगा दिये।
1970 के दशक के अंतिम पड़ाव आते आते रॉ ने अपनी जड़ें जमाना शुरू कर दिया था। मोस्साद और रॉ के बीच इंटेलिजेंस एक्स्चेंज होने लगे और पाकिस्तान में रावलपिंडी के पास एक छोटा सा शहर, काहूटा, ढूंढा गया। वैसे रॉ के नेटवर्क का कोई सानी नहीं था, पर प्लांट की सुरक्षा व्यवस्था चाक चौबन्द थी। इसलिए रॉ ने अपनी विद्वत्ता का परिचय देते हुये पाकिस्तानी परमाणु वैज्ञानिकों के बालों के सैम्पल इकट्ठा करना शुरू कर दिये, क्योंकि सभी एक ही नाई की दुकान से अपने बाल कटवाते थे। इन सैंपलों का निरीक्षण किया गया, तो सबमें एक कड़ी समान मिली :- प्लूटोनियम, जो परमाणु बम का सबसे अहम हिस्सा माना जाता है।
अब इजराएल बिना किसी देरी के इस प्लांट को तहस नहस करना चाहता था, और इसके लिए वह गुजरात के जामनगर एयर बेस का इस्तेमाल करना चाहता था, और साथ ही में रीफ़्यूलिंग के लिए अलग बेस। वायुसेना भी बहती गंगा में हाथ धोने को काफी तत्पर थी, और उनके पास एक योजना भी थी। बस एक राजनैतिक हामी की आवश्यकता थी।
पर इसके बाद जो हुआ, उसपर शायद ही कोई यकीन करना चाहेगा। तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई, जो उस वक़्त जनरल ज़िया उल हक़ से बातचीत कर रहे थे, ने चुपके से इस मिशन की पोल खोल दी। इस राजनैतिक धोखे से कई रॉ अफसरों और एजेन्टों को अपनी जान और अस्मत, दोनों से हाथ धोना पड़ा, और लगभग दो दशक तक पाकिस्तानी इंटेलिजेंस पर हमारी धाक नहीं जम पायी।
अगर निशान ए पाकिस्तान से सम्मानित मोरारजी देसाई ने यह गद्दारी न की होती, तो आज पाकिस्तान हमें कभी परमाणु बम से डराने की औकात न रखता। शायद इसीलिए नीलम संजीव रेड्डी ने इन्हे समय पूर्व प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देने को बाध्य किया था।
क्या भारत ऐसा कुछ आज कर सकता है? विशेषकर पाकिस्तान की दूसरा हमला करने की विफलता के बाद, और पूर्व रक्षा मंत्री मनोहर पार्रिकर के ‘कोई प्रथम इस्तेमाल नहीं’ की नीति को कूड़े में डालने के बाद शायद ये हो सकता है। ये वही पार्रिकर है जिनहोने सर्जिकल स्ट्राइक्स की नींव रखी थी, और कई बार मोदी जी से इसके लिए प्रशंसित भी हो चुके हैं।
फेडरेशन ऑफ अमेरिकन साइंसेज के हंस एम क्रिस्टेनसेन ने अपने ब्लॉग पे एक उपग्रह चित्र प्रकाशित किया है जो लगभग निश्चित रूप से कराची से 12 किलोमीटर दूर मसूर एयर फोर्स बेस के पास एक पाकिस्तानी परमाणु हथियार भंडारण स्थल है। इस चित्र में आप देख सकते हैं की परमाणु हथियारों की सुविधा के लिए विशेष सुरक्षा का प्रभंध है, साथ ही उनके अलग भंडारण बंकरों का भी प्रबंध है । अगर एक ब्लॉगर पाकिस्तानी परमाणु भंडार देख सकता है, तो मुझे यकीन है कि रॉ मोस्साद और सीआईए कॉफी नहीं पी रहे होंगे। मोदी, ट्रम्प और बेंजामिन नेतन्याहू इसके बारे में ज़रूर कुछ कर सकते हैं , आप का क्या ख्याल है ?