लोकतंत्र जन-द्वारा, जन-हेतु, जन-सरकार है लेकिन अतीत में ही अमीर लोगों ने लोकतांत्रिक व्यवस्था और आर्थिक न्याय को ध्वस्त करने का एक तरीका खोज लिया है। वे अपने व्यवसायों के लिए सार्वजनिक धन का उपयोग कर रहे हैं और यदि व्यवसाय विफल हो जाते हैं तो उन्हें विफलताओं के लिए उत्तरदायी नहीं बनाया जाता। उत्तरदायित्व और परिणाम के भार का वहन आम जन करती है। अर्थ हानी का परिणाम सरकार अर्थात् आप जैसे करदाताओं के जेब पर पड़ता है।
DHFL के लेनदारों ने ली राहत की सांस
परंतु, अब ऐसा नहीं है। वित्त मंत्री अरुण जेटली के शासन काल में पारित भारतीय दिवाला और शोधन अक्षमता कोड वरदान बन कर सामने आ रहा है, जिसके कारण NPA की वसूली ने अपनी गति पकड़ ली है। वो तो भला हो भारतीय दिवाला और शोधन अक्षमता कोड का जिसकी बदौलत दीवान हाउसिंग फाइनेंस कॉरपोरेशन लिमिटेड (हाउसिंग फाइनेंस कंपनी) के ऋणदाताओं को उनके बकाया की पहली किस्त मिलने वाली है। पहले चरण में वसूल की गई कुल राशि 37,400 करोड़ रुपये होगी। इस राशि को आगे 20 प्रतिशत नकद और 23 प्रतिशत गैर-परिवर्तनीय डिबेंचर (सात वर्षों में देय) में विभाजित किया जाएगा। गैर-परिवर्तनीय डिबेंचर एक प्रकार का बांड है जो किसी कंपनी या सरकार द्वारा समर्थित है।
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भारतीय स्टेट बैंक के नेतृत्व में ऋणदाताओं के संघ, बैंक ऑफ इंडिया (बीओआई) और यूनियन बैंक ऑफ इंडिया (यूबीआई) को कुल 87,400 करोड़ रुपये का भुगतान प्राप्त करना है। एसबीआई ने 7,267 करोड़ रुपये, बीओआई ने 7,125 करोड़ रुपये जबकि यूबीआई ने डीएचएफएल को ऋण के रूप में कुल 3,605 करोड़ रुपये देने का दावा किया था। बरामद राशि में से SBI को 1,453 करोड़, BOI को 825 करोड़ रुपये और UBI को 721 करोड़ रुपये सौंपे जाएंगे।
डीएचएफएल की समस्या जून 2019 में सुर्खियों में आई, जब उसने कई ऋण भुगतानों में चूक की, जिसके परिणामस्वरूप उसके शेयर की कीमत में 90 प्रतिशत की गिरावट आई। अगले कुछ महीनों तक यह लगातार छापेमारी और धन शोधन के आरोपों की चपेट में रहा। अंततः 2020 में भारतीय रिजर्व बैंक ने भुगतान दायित्वों के संबंध में “शासन की चिंताओं और चूक” का हवाला देते हुए DFHL के निदेशक मंडल को हटा दिया। दिवाला कार्यवाही को IBC के प्रावधानों के तहत राष्ट्रीय कंपनी कानून न्यायाधिकरण (NCLT) को सौंप दिया गया था।
2014 में मोदी सरकार के सत्ता में आने से पहले कुल एनपीए लगभग 52 लाख करोड़ था। IBC के तहत सरलीकृत प्रक्रिया ने इसे इस साल 31 मार्च तक घटाकर 8.34 लाख करोड़ कर दिया गया है। दिवाला कार्यवाही में आमतौर पर भारत में औसतन लगभग 4.3 वर्ष लगते हैं। जो यूनाइटेड किंगडम में 1 वर्ष और संयुक्त राज्य अमेरिका में 1.5 वर्ष की तुलना में काफी धीमी है। IBC ने न केवल इस समयावधि को कम किया है बल्कि निवेश की इच्छुक कंपनियों के लिए भारत को एक मित्रवत गंतव्य भी बनाया है।
अगर कोई कंपनी कर्ज़ वापस नहीं चुकाती तो IBC के तहत कर्ज़ वसूलने के लिये उस कंपनी को दिवालिया घोषित कर दिया जाता है। इसके बाद उसकी पूरी संपत्ति पर बैंक का कब्ज़ा हो जाता है और बैंक उस संपत्ति को किसी अन्य कंपनी को बेचकर अपना कर्ज़ वसूल सकता है। IBC की धारा-29 में यह प्रावधान किया गया है कि कोई बाहरी व्यक्ति (थर्ड पार्टी) ही कंपनी को खरीद सकता है।
IBC- उद्यमियों के लिए एक गेम चेंजर
भारतीय दिवाला और शोधन अक्षमता कोड 2016 एक ऐतिहासिक दिवालियापन कानून है जो दिवालिया कंपनियों के लिए एकल-खिड़की समाधान प्रदान करता है। 255 वर्गों और 11 अनुसूचियों से मिलकर यह प्रक्रिया को सरल बनाता है और छोटे निवेशकों के हितों की रक्षा करता है। आईबीसी के तहत दिवाला प्रक्रिया शुरू होने के 180 दिनों के भीतर इसे पूरी करनी होती है। यह समय सीमा के विस्तार की अनुमति तभी देता है जब लेनदार इससे सहमत हों। त्वरित समाधान के अलावा एक विशिष्ट प्रावधान जो इसे सफल बनाता है वह यह है कि यह लेनदारों को पुनर्भुगतान में चूक के मामले में देनदार की संपत्ति पर नियंत्रण हासिल करने का प्रावधान करता है।
IBC को भारतीय दिवाला और दिवालियापन बोर्ड (IBBI) द्वारा नियंत्रित किया जाता है, जिसमें RBI, वित्त और कानून मंत्रालय के 10 सदस्य होते हैं। अगर कंपनियों को दिवाला प्रक्रिया संतोषजनक नहीं लगती है तो उन्हें नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल (एनसीएलटी) में जाना होगा। यह भारत में ईज ऑफ डूइंग बिजनेस में गेम चेंजर साबित हुआ है। पहले कंपनियां भारत के कानून के शासन को बनाए रखने के वादे के बारे में निश्चित नहीं थीं लेकिन आईबीसी ने अपनी प्रतिबद्धता के साथ इस धारणा को बहुत बदल दिया है। 2016 कोड के तहत इतनी दक्षता के बाद भी IBC में MSME के संदर्भ में विशिष्ट समाधान गायब थे। 2021 में पेश किए गए IBC 2.0 ने MSME क्षेत्रों में भी दिवालियेपन के लिए विशिष्ट उपाय प्रदान किए हैं।
निष्कर्ष
आत्मनिर्भर भारत, मेक-इन-इंडिया, स्टार्टअप इंडिया और स्टैंडअप इंडिया जैसी योजनाओं के कारण अधिक से अधिक कंपनियां आगे बढ़ रही हैं। लेकिन हमें इस वास्तविकता को स्वीकार करना होगा कि तालाब की हर मछली अच्छी नहीं होती। आईबीसी तालाब में खराब मछलियों को बाहर निकालने के लिए कदम बढ़ाता है।