शाही ईदगाह मस्जिद, जामी मस्जिद, ज्ञानवापी मस्जिद, कमल मौला मस्जिद, इन सब में समान बात क्या है? शायद आप एक बार को भ्रमित हो जायें, परन्तु बाबरी मस्जिद का नाम जुड़ते ही आपके समस्त भ्रम दूर हो जाएंगे और ऐसी ही एक इमारत है अजमेर में स्थित अढ़ाई दिन का झोंपड़ा, जिस पर दावा किया जाता है कि यह केवल अढ़ाई दिन में बनकर तैयार हुआ. पर क्या वास्तव में ऐसा अद्भुत चमत्कार हुआ या फिर वामपंथी इतिहासकारों द्वारा हमारे वास्तविक संस्कृति से हमें अनभिज्ञ रखने का ये एक घृणित और विकृत प्रयास है?
आखिर ये अढ़ाई दिन का झोंपड़ा है किस चिड़िया का नाम? क्या यह वास्तव में कोई झोंपड़ा है? कदापि नहीं, ये असल में एक मस्जिद है, जिस पर दावा किया जाता रहा है कि यह अल्लाह की रहमत से ‘अढ़ाई दिन में तैयार हो गया था’! अरे रुकिए, रुकिए, मोहल्ले की आंटियों की भांति जज मत कीजिये. आधिकारिक सूत्रों के अनुसार, अढ़ाई दिन का झोंपड़ा की रुपरेखा हेरात के निवासी अबू बकर ने तैयार की थी और तत्कालीन सुल्तान कुतुबुद्दीन ऐबक ने इसे निर्मित कराया. मुहम्मद गोरी ने तराइन के द्वितीय युद्ध में सम्राट पृथ्वीराज चौहान को परास्त कर, उन्हें अपना बंदी बनाया, जिसके बाद उसने अजमेर यात्रा की और वहां के मंदिरों को ध्वस्त करने का आदेश दिया. यहीं से ‘अढ़ाई दिन का झोंपड़ा’ की नींव पड़ी, जो भारत के सबसे प्राचीन मस्जिदों में से एक मानी जाती है.
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क्या सनातनी भवन है अढ़ाई दिन का झोंपड़ा?
परंतु, इसका ‘अढ़ाई दिन का झोंपड़ा’ के नाम से क्या वास्ता? जनश्रुतियों के अनुसार, इस नाम के पीछे दो कारण है – एक तो वहां पर अढ़ाई दिन का मेला लगता था और दूसरा यह कि सुलतान कुतुबुद्दीन ऐबक ने इस भवन को मात्र अढ़ाई दिन में निर्मित कराया. अब आप चाहे अत्याधुनिक तकनीक को टेलिपोर्ट ही क्यों न कीजिए, पर अढ़ाई दिन में तो इमारत की नींव भी ढंग से मजबूत नहीं हो पाती, निर्माण की बात तो छोड़ ही दीजिए.
तो क्या अजमेर के अढ़ाई दिन का झोंपड़ा वास्तव में एक सनातनी भवन है? निस्संदेह यहीं सत्य है, क्योंकि जो साक्ष्य हैं और जो अवशेष हैं, वो इसी ओर संकेत देते हैं. यदि आपको विश्वास नहीं, तो इन चित्रों को ध्यान से देखिये, ये अढ़ाई दिन का झोंपड़ा के ही हैं –
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इन चित्रों का यदि आप ध्यान से विश्लेषण करें, तो आप भी सोचने को विवश होंगे – ये वास्तव में मस्जिद के ही चित्र हैं? जी हाँ, ये वास्तव में अढ़ाई दिन का झोंपड़ा के चित्र हैं, परन्तु अगर इस्लामिक शास्त्रों का अध्ययन सतही स्तर पर भी किया हो, तो आप भी जानेंगे कि यह स्थान ‘कुफ्र’ है, क्योंकि जहाँ पर पद्म शैली में निर्माण हो, स्वस्तिक निर्मित हो, सनातन संस्कृति का गौरव विद्यमान हो, वहां पर आप अपने इस्लामिक रीतियों का अनुसरण कैसे कर सकते हैं? इसके बाद भी यहाँ पर अनेक लोग आते हैं, नमाज़ पढ़ते हैं और अपने इस्लामिक रीतियों का अनुसरण भी करते हैं.
इस्लामिक साम्राज्यवाद का प्रतीक है अढ़ाई दिन का झोंपड़ा
इतिहासकार हरविलास शारदा की मानें, तो यह भवन वास्तव में एक संस्कृत महाविद्यालय था, जिसकी नींव चाहमणा वंश के सम्राट विग्रहराज चतुर्थ ने रखी थी, तब अजमेर का वास्तविक नाम अजयमेरु था. सम्राट विग्रहराज चतुर्थ उन्हीं सम्राट पृथ्वीराज चौहान के पूर्वज थे, जिन्होंने मुहम्मद घोरी को तराइन के प्रथम युद्ध में परास्त किया था, परन्तु अपने ही आदर्शवाद की भेंट चढ़ गए थे.
लेकिन जिस प्रकार से इस भवन की नींव पड़ी और जिस प्रकार से इसकी कलात्मक शैली मां सरस्वती का गुणगान करते हुए दिखाई पड़ती है, उससे स्पष्ट होता है कि अढ़ाई दिन का झोंपड़ा कुछ है ही नहीं। कहा जाता है कि अजयमेरु यानी अजमेर की स्थापना सरस्वती नदी के तट पर हुई थी, और ऐसा तो हो ही नहीं सकता कि सरस्वती-सिन्धु सभ्यता के अवशेष का कोई भी अंश न बचा हो. क्या अजमेर में स्थित अढ़ाई दिन का झोंपड़ा की जडें वास्तव में इस पवित्र और प्राचीन सभ्यता से जुड़े हैं?
सच कहें तो अढ़ाई दिन का झोंपड़ा, बाबरी मस्जिद और ज्ञानवापी मस्जिद की भांति, वास्तव में हमारी संस्कृति पर ज़बरदस्ती थोपा हुआ इस्लामिक साम्राज्यवाद का जीता जागता हुआ प्रतीक है, जिसके नीचे हमारी संस्कृति के वो रहस्य छुपे हैं, जिन्हें जनता के समक्ष लाना हमारा कर्तव्य भी है और हमारा धर्म भी!
Bilkul satya bat h apki Animesh ji
Parantu sanatani to sanatani ka hi sath nahi de rha h.free ka khane free ka pane ki adat padti ja rhi h jo ki apne dharm ki mahanta bhula rhi h.