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आखिर कैसे हिंदुत्व के प्रतीक से ‘हिंदुत्व के कलंक’ में परिवर्तित हुए आडवाणी?

‘जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है!’

Animesh Pandey द्वारा Animesh Pandey
8 November 2021
in चर्चित, ज्ञान
आडवाणी

Source- Google

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‘जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है’, ये कथन एक व्यक्ति के जीवन का संक्षिप्त परिचय कराने के लिए पर्याप्त है, जो कभी देश की संस्कृति को अक्षुण्ण रखने के लिए एड़ी चोटी का ज़ोर लगाते थे। परंतु राजनीति के कुचक्र में वो ऐसे फंसे कि हिंदुत्व की विचारधारा के सबसे प्रखर प्रतीक से कब वह सबसे बड़े कलंक के रुप में परिवर्तित हो गए, पता ही नहीं चला! जी हां, हम बात कर रहे हैं लाल कृष्ण आडवाणी की, जिनका आज जन्मदिन है। इन्होंने राष्ट्रवादी राजनीति की नींव रखी थी और भारतीय जनता पार्टी का अस्तित्व खड़ा करने में भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। लेकिन एक सुनहरा अवसर होते हुए भी वह लोकसभा चुनाव 2009 में कांग्रेस के अत्याचारी शासन को उखाड़ फेंकने में असफल रहे थे!

जनसंघ की रीढ़ बन चुके थे आडवाणी

भारत के अंतिम उप प्रधानमंत्री रहे लाल कृष्ण आडवाणी का जन्म आज ही के दिन यानि 8 नवंबर 1927 को कराची में हुआ। मात्र 14 वर्ष की आयु में ही वो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा से जुड़ गए। लेकिन जब उन्होंने युवावस्था में कदम रखा, तो उन्हें भारत के विभाजन की पीड़ा सहनी पड़ी और उन्हें कराची से राजस्थान स्थानांतरित भी होना पड़ा।

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लालकृष्ण आडवाणी जल्द ही भारतीय जनसंघ का हिस्सा बन गए, जिसका नेतृत्व प्रखर राष्ट्रवादी डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी के हाथों में था। वो मात्र 26 वर्ष के थे, जब डॉक्टर मुखर्जी की कश्मीर में रहस्यमयी परिस्थितियों में मृत्यु हो गई। सन् 1957 तक युवा आडवाणी भारतीय जनसंघ का अभिन्न अंग बन चुके थे और उन्होंने अपने सहभागी अटल बिहारी वाजपेयी के साथ आरएसएस एवं जनसंघ को सशक्त बनाने की दिशा में भरपूर प्रयास किया।

जनसंघ के सहसंस्थापक बलराज माधोक को 1973 के अधिवेशन में पार्टी से निष्कासित करने के कारण वे विवादों के घेरे में भी आए, परंतु आपातकाल में उनके प्रखर व्यक्तित्व और प्रदर्शन ने इस ओर लोगों का ध्यान आने ही नहीं दिया। जब जनता पार्टी ने कांग्रेस को 1977 के चुनाव में हराया, तो आडवाणी सूचना एवं प्रसारण मंत्री बनाए गए।

और पढ़ें : राष्ट्रपति चुनाव में आडवाणी जी के हाव-भाव देख आपको दया आई? ये पढ़कर नहीं आएगी

इसी बीच वैचारिक अनबन के कारण जनता पार्टी विघटित हुई और 1980 में भारतीय जनता पार्टी की स्थापना हुई। प्रारंभ में अटल बिहारी वाजपेयी इसके अध्यक्ष बनें, जिन्होंने गांधीवादी समाजवाद और नरम हिन्दुत्व को बढ़ावा दिया। लेकिन ये दांव उचित सिद्ध नहीं हुआ और 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बावजूद भाजपा को अपने प्रथम चुनाव में मात्र दो लोकसभा सीट प्राप्त हुए। उस समय भाजपा से अधिक आक्रामक तेलुगु सुपरस्टार एन टी रामा राव की तेलुगु देसम पार्टी निकली, जिसने कांग्रेस की आंधी में भी डटकर 30 सीट प्राप्त किये!

‘…मंदिर वहीं बनाएंगे’

उसके बाद जल्द ही भाजपा का नेतृत्व आडवाणी के हाथों में स्थानांतरित हुआ, जिन्होंने आक्रामक हिन्दुत्व को पुनः बढ़ावा दिया। ‘सौगंध राम की खाते हैं, मंदिर वहीं बनाएंगे!’ इन्हीं के प्रयासों की देन थी। ये आडवाणी ही थे, जिन्होंने तेलुगु देसम पार्टी की तत्कालीन राष्ट्रीयता को पहचानते हुए उन्हें एक गैर कांग्रेसी मोर्चा बनाने का सुझाव दिया, जिसमें कांग्रेस से विक्षुब्ध होकर आए जनता दल के प्रमुख विश्वनाथ प्रताप सिंह भी शामिल हुए। ये प्रयोग बेहद सफल रहा और राष्ट्रीय मोर्चा ने अपनी गठबंधन सरकार बनाई, जिसमें भाजपा का अपना 85 सीट का योगदान भी रहा। लेकिन ये मोर्चा अगले ही साल बिखर गया, क्योंकि इसी पार्टी के नेता लालू प्रसाद यादव ने भाजपा के ‘राम रथ यात्रा’ को न केवल रोका, अपितु लालकृष्ण आडवाणी को हिरासत में भी लिया। रही सही कसर कश्मीर में हुए आतंकवाद और विश्वनाथ प्रताप सिंह द्वारा सुझाए गए मण्डल कमीशन के हास्यास्पद आरक्षण ने पूरी कर दी!

लेकिन आडवाणी का कद नहीं घटा, उनका कद बढ़ता ही गया और अयोध्या जन्मभूमि परिसर पर निर्मित ‘बाबरी मस्जिद’ के विध्वंस के पश्चात लालकृष्ण आडवाणी हिन्दुत्व के सबसे बड़े प्रतीकों में से एक बन गए। हिन्दुत्व की विचारधारा को स्थापित करने में जितनी महत्वपूर्ण भूमिका वीर सावरकर, सीताराम गोयल आदि जैसे महापुरुषों की है, उतनी ही महत्वपूर्ण भूमिका राजनीतिक रूप से लालकृष्ण आडवाणी की भी रही है।

और पढ़ें: लाला लाजपत राय: वो वीर पुरुष जिनके बलिदान ने स्वतंत्रता आंदोलन की दिशा ही बदल दी!

आडवाणी का जिन्ना प्रेम

तो फिर ऐसा क्या हुआ की जो व्यक्ति हिन्दुत्व का सबसे बड़ा प्रतीक था, उसके हाथों में कमान होते हुए भी साल 2009 का चुनाव भाजपा नहीं जीत पाई? कारण था कराची, विशेषकर मोहम्मद अली जिन्ना के प्रति मोह! साल 2005 में जब भाजपा सत्ता से बाहर हो चुकी थी, तो लालकृष्ण आडवाणी कराची यात्रा पर निकले। उन्होंने न केवल मोहम्मद अली जिन्ना के मज़ार पर चादर चढ़ाई, अपितु उसकी तारीफ में अनेक बातें भी कही। रही सही कसर कुछ ही वर्षों बाद उन्हीं के मंडली के प्रिय नेता यसवंत सिंह ने जिन्ना के विरुदावली में एक पुस्तक निकालकर पूरी कर दी। आडवाणी को अध्यक्ष पद गंवाना पड़ा, तो यसवंत सिंह को पार्टी ही छोड़नी पड़ी। जिसके बाद भाजपा ‘नरम दल’ और ‘गरम दल’ में बंट गई, क्योंकि तत्कालीन गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी, आडवाणी की नीतियों से सहमति नहीं रखते थे।

एक तो पहले ही कई देशवासी कंधार कांड पर आडवाणी की कथित अक्षमता के पीछे विक्षुब्ध थे और फिर जिन्ना की विरुदावली उनके मुख से सुनकर वे आपे से बाहर हो गए। इसके अलावा साल 2004 में जब आडवाणी और वाजपेयी के संयुक्त नेतृत्व में चुनाव लड़ा गया, तो आडवाणी को ‘लौहपुरुष’ की पदवी मिली, जबकि यह नाम केवल सरदार पटेल के लिए उपर्युक्त है, जिन्होंने इस देश को एक करने के लिए अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया था!

और पढ़े: आगा खान – जिसने ऑल इंडिया मुस्लिम लीग का सृजन किया और अखंड भारत को खंडित किया

साल 2009 भाजपा के लिए सत्ता पुनः प्राप्त करने का सबसे बढ़िया अवसर था, क्योंकि हिंदू आतंकवाद के नाम पर कांग्रेस ने पूरे देश का बंटाधार किया था। परंतु अपने अहंकार और जिन्ना प्रेम के कारण आडवाणी ने न केवल यह सुनहरा अवसर गंवाया, अपितु अपनी छवि का भी सत्यानाश सुनिश्चित करवाया!

Tags: भाजपालाल कृष्ण आडवाणी
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