भारत और चीन दुनिया की 5 सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में शामिल हैं। दोनों ही देशों ने 1990 के दशक से अपने आर्थिक विकास की दौड़ प्रारंभ की। हालांकि, चीन भारत से इसलिए आगे निकल गया, क्योंकि उसे पश्चिमी देशों ने खुलकर समर्थन दिया। किंतु अपनी आर्थिक शक्ति के बावजूद जब बात सॉफ्ट पावर की आती है, अर्थात् अपनी कूटनीतिक शक्ति के प्रदर्शन की बात होती है, तो भारत चीन से बहुत आगे दिखाई देता है। अफ्रीका इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है।
खनिज संपदा से भरपूर अफ्रीका महाद्वीप में चीन का अच्छा प्रभाव है, किंतु अफ्रीकी देशों में चीन की छवि अच्छी नहीं है। इसका एक बड़ा कारण चीन की डेब्ट ट्रैप पॉलिसी (DBT) है, जिसके कारण अफ्रीकी देशों में चीन द्वारा संचालित इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट इन देशों के गले की हड्डी बन चुके हैं। इस कारण चीन अपने लाख प्रयास के बावजूद क्षेत्रीय शक्तियों में अपनी छवि नहीं सुधार पा रहा है। वहीं, भारत की बात करें तो भारत ने सामाजिक स्थिति में सुधार के लिए कई योजनाएं चला रखी है, जिसमें स्वास्थ्य सेवाओं की बड़ी हिस्सेदारी है। यही कारण है कि चीन को एक लालची पूंजीवादी देश के रूप में देखा जाता है, जबकि भारत को एक सहयोगी के रूप में देखा जाता है।
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चीन को है केवल अपने फायदे से मतलब
देखा जाए तो चीन एक लालची पूंजीवादी देश है, जो केवल इस बात के लिए चिंतित रहता है कि अफ्रीका में उसके द्वारा किया गया निवेश उसे अधिक से अधिक लाभ पहुंचा सके। चीन को सिल्की देशों की सहायता से कोई लेना-देना नहीं है और न ही उसे इस बात की चिंता है कि अफ्रीकी देश आर्थिक तरक्की कर सकें तथा गरीबी और भुखमरी की समस्या को समाप्त कर सकें। यही कारण है कि अफ्रीकी देशों में भारत को चीन से अधिक विश्वसनीय सहयोगी और चीन का विकल्प माना जा रहा है।
चीन और भारत के बीच अफ्रीकी महाद्वीप में चल रही प्रतिस्पर्धा पर टिप्पणी करते हुए फाइनेंशियल एक्सप्रेस में भारत की पूर्व राजनयिक और विदेश मंत्रालय के अफ्रीकी मामलों के विभाग में सह सचिव के पद पर कार्य कर चुकी नरिंदर चौहान ने एक लेख लिखा है। उनके अनुसार, “अफ्रीकी लोगों के दैनिक जीवन में उपयोग किए जाने वाले मोबाइल फोन, टीवी और सड़कें चीनियों द्वारा बनाई गई हैं। अफ्रीकी सरकारों ने स्वेच्छा से चीन से ऋण स्वीकार किया, क्योंकि बदले में किसी जवाबदेही की आवश्यकता नहीं थी। अफ़्रीकी नेता नागरिकों से सड़कों, बंदरगाहों और रेलवे का वादा कर चुनाव जीत सकते हैं।”
किंतु उन्होंने आगे बताया कि “हालांकि, श्रमिकों की स्थिति, असतत पर्यावरणीय नीतियां (जिससे पर्यावरण को हानि हो रही है) और चीनी कंपनियों के कारण होने वाले नौकरियों के विस्थापन की वजह से, श्रमिक संघ और सिविल सोसाइटी द्वारा चीन के साथ आर्थिक संबंधों की आलोचना की जा रही है। यह भी माना जाता है कि चीन अफ्रीकी सरकार की कमजोरियों का फायदा उठा रहा है, जिससे भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिल रहा है।” अंगोला, घाना, गांबिया और केन्या में चीन की आलोचना दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है।
अफ्रीका में सुदृढ़ हो रही है भारत की स्थिति
ध्यान देने वाली बात है कि डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो में परिस्थितियां और भी खराब है। हाल ही में ब्लूमबर्ग की एक रिपोर्ट में बताया गया था कि कैसे चीन ने इस अफ्रीकी देश से कई मिलियन डॉलर की लूट की है। कांगो के कई उच्च अधिकारी जिनमें राष्ट्रपति जोसेफ काबिला का नाम भी शामिल था, उन्होंने एवं उनके करीबियों ने चीन की आर्थिक अनियमितताओं को बढ़ावा देने का काम किया था।
वहीं, भारत की बात करें तो सामाजिक कार्यों में भारत की भागीदारी ने अफ्रीका में भारत की स्थिति सुदृढ़ की है। भारत सरकार अफ्रीका के सामाजिक ढांचे में सुधार के लिए प्रयासरत है। नरिंदर चौहान ने आगे लिखा कि “बुनियादी ढांचे के निर्माण और प्राकृतिक संसाधनों की लूट पर ध्यान केंद्रित करने वाले चीन के विपरीत, भारत ने अपने 11 अरब डॉलर से अधिक के निवेश के माध्यम से मानव संसाधन विकास, सूचना प्रौद्योगिकी, समुद्री सुरक्षा, शिक्षा और स्वास्थ्य देखभाल की अपनी मुख्य दक्षताओं पर ध्यान केंद्रित किया है।”
यहीं पर चीन और भारत के बीच अंतर देखने को मिलता है। चीन इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास से आर्थिक लाभ कमाने की ओर ध्यान देता है और अपनी भू-राजनीतिक आकांक्षाओं को पूरा करता है। जबकि भारत अफ्रीका के आर्थिक विकास और सामाजिक विकास को अपनी प्राथमिकता बनाए हुए है। बेल्ट एंड रोड योजना (BRI) के तहत बीजिंग पर अफ्रीका में अपने लोगों को बतौर श्रमिक तैनात करने और अपनी कंपनियों को पूरा प्रोजेक्ट देने का आरोप है। चीन पर आरोप है कि वह अफ्रीकी लोगों की दक्षता में वृद्धि करने पर जोर नहीं देता।
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अफ्रीकी देशों के लिए भारत ही है चीन का विकल्प
दूसरी ओर भारत ने अपना पूरा ध्यान अफ्रीकी लोगों की दक्षता में वृद्धि पर केंद्रित किया है और स्पष्ट किया है कि भारत अफ्रीका को मात्र आर्थिक संसाधन के रुप में नहीं देखता। भारत द्वारा प्रदान किए जाने वाला आर्थिक पैकेज और ट्रेनिंग प्रोग्राम आदि सकारात्मक पहल ने भारत की सॉफ्ट पावर में वृद्धि की है। यही कारण है कि अब जहां एक और अफ्रीकी देश चीन के प्रति लगातार आक्रामक हो रहे हैं, वही भारत को उसके विकल्प के रूप में देखा जा रहा है।
कांगो जैसे देशों में बढ़ता चीन विरोधी बवंडर भारत के लिए लाभकारी सिद्ध होगा। यही कारण है कि भारत अफ्रीकी देशों के साथ अपने आर्थिक संबंध और मजबूत करने पर ध्यान दे रहा है। वर्ष 2010-11 में भारत और अफ्रीका का व्यापार 51.7 बिलियन डॉलर का था, जो वर्ष 2019-20 में बढ़कर 66.7 बिलियन डॉलर का हो गया है। इस दौरान अफ्रीका से भारत को होने वाले निर्यात में भी 5 बिलियन डॉलर की वृद्धि देखी गई है।
बताते चलें कि भारत के कुल आयात में अफ्रीका की हिस्सेदारी 8 फीसदी है, जबकि अफ्रीका के आयात में भारत की हिस्सेदारी 9 फीसदी है। जैसे-जैसे भारत और अफ्रीका के आर्थिक संबंध मजबूत होंगे एवं अफ्रीकी देशों में भारत को चीन का मजबूत विकल्प समझा जाने लगेगा, वैसे ही चीन की प्रासंगिकता अफ्रीका के लिए समाप्त होती जाएगी।
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