कई बार स्वतंत्रता ऐसी बाधक बन जाती है कि न ही वो थूकते बनती है और न निगलते। कुछ ऐसा ही हाल न्याय व्यवस्था के कुछ बिंदुओं का है जिनका दुरुपयोग डंके की चोट पर होता है और न्यायपालिका तमाशबीन बनी देखती रहती है। इसमें कोई दोहराय नहीं है कि हर चीज़ के दो पहलु होते हैं, उसी का फायदा उठा कुछ तत्व अपने एजेंडे की पूर्ति करते हैं। जहांगीरपुरी दंगे के बाद उसपर कार्रवाई की बात आते ही सभी बागड़बिल्ले अर्थात लिबरल, सेक्युलर और जिहादी बिलबिलाने लगे। इसी क्रम में जब बाबा के बुलडोज़र की तर्ज पर बुधवार को जहांगीरपुरी में जब एमसीडी का बुलडोज़र पहुंचा तो यही नेता और जिहादी सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए कि ऐसा नहीं होना चाहिए। उसी में से एक हैं लतियाए गए कांग्रेसी और वकील कपिल सिब्बल। जी हां, आतंकियों के मसीहा, पथराव करने वालों के रक्षक कपिल सिब्बल ने एक बार फिर जिहादी तत्वों के प्रति अपनी हमदर्दी का बखान करते हुए सुप्रीम कोर्ट के आगे विधवा विलाप किया ताकि बुलडोज़र की तुड़ाई से जिहादियों की अवैध इमारतें बच जाएं।
कार्रवाई पर रोक लगाने का CJI का आदेश
दरअसल, कपिल सिब्बल और दुष्यंत दवे जैसे वकीलों की टोली द्वारा दायर एक तत्काल याचिका पर सुनवाई करते हुए भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) ने उत्तरी दिल्ली नगर निगम (NDMC) को अपनी कार्रवाई पर रोक लगाने का आदेश दिया।
दिल्ली के जहांगीरपुरी इलाके में हाल ही में हुए दंगों के बाद गिरफ्तार किए गए कई आरोपी सरकारी जमीन पर अवैध कब्जा करने से जुड़े थे। इस तरह के अतिक्रमण को हटाने के लिए, उत्तरी दिल्ली नगर निगम ने 19 अप्रैल को दिल्ली पुलिस को महिला पुलिस सहित कम से कम 400 पुलिस कर्मियों को अतिक्रमण हटाने की कार्रवाई के दौरान कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए कहा था।
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उत्तरी दिल्ली नगर निगम द्वारा कार्रवाई शुरू करने से पहले दुष्यंत दवे, शमशाद, कपिल सिब्बल, कपिल दीक्षित, संजय आर. हेगड़े, पी.वी. सुरेंद्र नाथ, सुभाष चंद्रन के.आर. जमीयत उलमा-ए-हिंद का प्रतिनिधित्व करते हुए निगम के खिलाफ कार्यकारी कार्रवाई को रोकने के लिए अपील दायर की। याचिका पर तत्काल सुनवाई करते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने रजिस्ट्री के मामले को 21 अप्रैल के लिए सूचीबद्ध करने का आदेश दिया और एनडीएमसी को अगले आदेश तक “यथास्थिति बनाए रखने” का आदेश दिया।
निश्चित रूप से जनता भौचक्की है कि कैसे एक नगर निगम के एक्शन पर सुप्रीम कोर्ट बाहें खोल कर याचिकाकर्ताओं का स्वागत करता है और अचम्भे की बात यह है कि इसपर सुनवाई भी फास्ट्रैक मोड़ अर्थात मिनटों में होती है। न जाने कैसे हालातों में आजतक लगभग 70000 मामले ही लंबित हैं और अदालतों के पदानुक्रम को पार करते हुए ये मामले रजिस्ट्री तक पहुंचते हैं और यहां आते आते अपील के खिलाफ आदेश भी जारी किए जाते हैं। यह तो हालात हैं, ऐसे में क्या ही कहा जा सकता है।
यह सर्वविदित सत्य है कि, प्रख्यात वकीलों और न्यायाधीशों के कुछ परिवारों द्वारा न्यायपालिका पर हमेशा एकाधिकार रहा है। व्यवस्था में सब कुछ समाज के एक विशेष वर्ग के उद्देश्य को समय पर पूरा करने के लिए रखा गया है। न्यायपालिका की हमेशा अपने अभिजात्य व्यवहार के लिए आलोचना की गई है। जहां आम लोग निचली अदालत के आदेश के खिलाफ अपील दायर करने के लिए संघर्ष करते हैं, यहां हर दया का मामला सीधे सीजेआई तक पहुंचता है।
मामलों की एक लंबी सूची है जो विवादास्पद रहे हैं
जिन आतंकियों के मसीहा, पथराव करने वालों के रक्षक कपिल सिब्बल की यहां बात हो रही है उनके द्वारा बचाव किए गए मामलों की एक लंबी सूची है जो विवादास्पद रहे हैं। जैसे वह ट्रिपल तलाक मामले में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (AIMPLB) का बचाव कर रहे थे। इसके अलावा उन्होंने नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) को चुनौती देते हुए इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग (IUML) को सुप्रीम कोर्ट में भी पेश किया था। उसकी जेब इन्हीं मामलों की सूची से चलती रहती है।
https://twitter.com/iumlofficial/status/1204426663439872000
जमीयत उलेमा-ए-हिंद का प्रतिनिधित्व करने वाले इन प्रख्यात वकीलों की औसत फीस लगभग 20 लाख प्रति सुनवाई है। ये अधिवक्ता भारत के कुछ उच्च वेतन पाने वाले वकील हैं। चूंकि सर्वोच्च न्यायालय प्रणाली में उनकी पहुंच असाधारण है, कई इस्लामी समूह अपने मामलों को तत्काल सूचीबद्ध करने के लिए इन वकीलों को नियुक्त करना पसंद करते हैं।
सवाल उठता है कि उन्हें भुगतान कैसे किया जाता है? वैसे, भारत में बहुत सारे विदेशी एनजीओ काम कर रहे हैं। सऊदी अरब, कतर और तुर्की जैसे कई खाड़ी देश इन संगठनों के शीर्ष दानदाता हैं। वे दुनिया में इस्लामी एजेंडे को बढ़ावा देने के लिए ऐसे बहुत से संगठनों को फंड करते हैं। हाल ही में, ईडी ने जाकिर नाइक की संपत्ति को कुर्क किया था और इस मामले में यह भी दावा किया था कि खाड़ी देश इन चरमपंथी समूहों के लिए मुख्य फंड प्रदाता हैं।
इस इस्लामी संगठन की स्थापना द्वितीय विश्व युद्ध में वापस आ गई थी। जब युद्ध के बाद तुर्की को अपमानित किया गया, तो दुनिया के मुसलमानों ने अपने खलीफा को बचाने के लिए खिलाफत आंदोलन शुरू किया। जमीयत उलमा-ए-हिंद तब से भारत में इस्लामी एजेंडे को बढ़ावा देने में शामिल है। उनके पास अदालतों में आतंकवादियों के लिए अग्रिम पंक्ति की रक्षा प्रणाली है। इसका एक समर्पित कानूनी प्रकोष्ठ संस्थान है, जिसने भारत में आतंकवादी हमलों के आरोपी इस्लामवादियों की रक्षा के लिए विशेषज्ञता हासिल की है। उन्होंने अदालतों में इस्लामी आतंकवादियों को हर कानूनी सहायता प्रदान की और वित्तीय लागत वहन की।
जिन प्रमुख मामलों में वे इस्लामी आरोपियों को बचाने के लिए शामिल हैं, वे हैं 7/11 मुंबई ट्रेन विस्फोट, 2006 मालेगांव विस्फोट, 2008 मुंबई हमला, गेटवे ऑफ इंडिया विस्फोट मामला, 13/7 मुंबई ट्रिपल विस्फोट आदि।
दुष्यंत दवे और कपिल सिब्बल जैसे प्रख्यात वकीलों की मदद से उन्होंने प्रशासन में एक मजबूत पारिस्थितिकी तंत्र बनाया है। न केवल सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालयों में, उनकी पहुंच में विभिन्न सरकारी विभागों से संवेदनशील जानकारी एकत्र करना शामिल है। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के मजबूत फंड समर्थन और भारत में प्रदान किए गए लॉबिंग समर्थन के साथ, इस्लामवादियों के पास समर्थन करने के लिए बहुत सारे हाथ हैं। इन आतंकवादियों और दंगाइयों को समय-समय पर पारिस्थितिकी तंत्र द्वारा सहायता प्रदान की जाती है।