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गोंडया आला रे! चापेकर बंधु के शौर्य का कोई जवाब नहीं

धन्य है वो माटी, जिसे ये वीर मिले!

Animesh Pandey द्वारा Animesh Pandey
22 June 2022
in इतिहास
chaapekar

Source- TFIPOST.in

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22 जून 1897, दिवस मंगलवार पुणे अवसाद का सागर बन चुका था, परंतु ब्रिटिश साम्राज्य विलासिता के रस का स्वाद ले रहा था। उनके लिए न कोई दुख, न कोई पीड़ा। उनके लिए तो बस वैभव ही जीवन का मूल मंत्र था, जिसका मूल्य वह दिन रात भारतीयों से ऐंठते थे, चाहे उसके लिए भारतीयों को अपने प्राणों की आहुति ही क्यों न देनी पड़े। सदियों बाद भारतीयों को पुनः दासता की बेड़ियाँ पहननी पड़ी। इसी बीच एक उत्सव से एक रथ अपने गंतव्य के लिए निकल पड़ा। परंतु इस रथ के साथ कुछ और लोग भी थे, जिनका उद्देश्य स्पष्ट था – इस रथ में सवार व्यक्तियों को उनके वास्तविक गंतव्य तक पहुंचाना। जैसे ही लक्ष्य पर रथ पहुंचा, एक व्यक्ति के मुख से नारा निकला, ‘गोंडया आला रे!’ और फिर, इतिहास ने एक महत्वपूर्ण करवट ली।

आज जिन परिस्थितियों से हम जूझ रहे हैं, ये हमारे देश के लिए नया नहीं है। सदियों पूर्व जब काली मौत, जिसे आधिकारिक तौर पर Bubonic Plague कहा जाता है, ने विकराल रूप धारण किया, तो इसने दशकों तक विश्व भर में त्राहिमाम मचाया। पूरे विश्व  में इस महामारी के कारण लगभग 1.5 करोड़ से अधिक लोगों की मृत्यु हुई, जिसमें से केवल 1.2 करोड़ लोग केवल भारत और चीन जैसे देश में ही मृत पाए गए। तो इसका ब्रिटिश साम्राज्य से क्या नाता? ऐसी विकट परिस्थिति में भी इस साम्राज्य के दृष्टिकोण में केवल एक नीति थी – जितना हो सके, भारत से राजस्व प्राप्त करो। इस नीति के अंतर्गत भारत के राजस्व, उसके संसाधनों को जमकर निचोड़ा गया, और न जाने कितने संसाधनों का अंधाधुंध दोहन किया गया। परंतु अत्याचार की भी एक सीमा होती है, और इस सीमा का परिचायक थे ICS अफसर वाल्टर चार्ल्स रैंड।

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कांग्रेस: औपनिवेशिक औजार से आपातकाल तक, भारत माता का अपमान

राष्ट्रकवि दिनकर: विद्रोह, राष्ट्रवाद और काव्य के ज्वालामुखी

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और पढ़ें: भारत के अवेन्जर्स– जिन्होंने अरबी आक्रान्ताओं को 313 वर्ष भारतवर्ष में घुसने तक नहीं दिया

तीन महावीर जिन्होनें एक अलग ही छाप छोड़ी

सन्‌ १८९७ में पुणे नगर प्लेग जैसी भयंकर बीमारी से पीड़ित था। परंतु इस स्थिति में भी अंग्रेज अधिकारी जनता को अपमानित तथा उत्पीड़ित करते रहते थे। वाल्टर चार्ल्स रैण्ड तथा आयर्स्ट-ये दोनों अंग्रेज अधिकारी लोगों को जबरन पुणे से निकाल रहे थे। जूते पहनकर ही हिंदुओं के मंदिरों में प्रवेश करते थे, और इस तरह ये अधिकारी प्लेग पीड़ितों की सहायता की जगह लोगों को प्रताड़ित करना ही अपना अधिकार समझते थे। उनके लिए भारतीय तुच्छ कीट मकोड़ों से अधिक कुछ नहीं थे। परंतु इन दुष्ट अंग्रेजों के लिए नरसिंह के अवतार समान एक नहीं, अनेक वीर प्रकट हुए। किसी समय पूना के पिंपरी चिंचवाड़ में चापेकर परिवार की गूंज चहुंओर, उनके कीर्तन की ख्याति पूरे पूना में थी। परंतु समय ने भी करवट ली, और शीघ्र ही वे निर्धनता की ओर अग्रसर हुए। इसी समय श्री हरिभाऊ चापेकर एवं श्रीमती लक्ष्मीबाई के घर जन्में तीन महावीर- दामोदर हरि चापेकर, बालकृष्ण हरि चापेकर और वासुदेव हरि चापेकर, जिन्होंने भारतीय इतिहास में एक अलग ही अध्याय स्थापित किया।

अब स्वतंत्रता की ज्योत 1857 में अवश्य प्रज्ज्वलित हुई, परंतु उसे निरंतर अग्नि देने वाला कोई न थी, उसे ईंधन यानी आक्रामकता से परिपूर्ण करने वाला कोई न था। कांग्रेस अवश्य 1885 में स्थापित हुई, परंतु इसके संस्थापक, एलन ऑक्टेवियन ह्यूम के शब्दों में कहे तो इसका मूल उद्देश्य स्वतंत्रता आंदोलन के ‘प्रेशर कूकर’ के लिए ‘सेफ़्टी वॉल्व’ का काम करने का था। परंतु इसी बीच उदय हुआ एक ऐसे नेता का, जिनके लिए अनुनय विनय जैसे तुच्छ कार्य महत्व नहीं रखते थे। इनके लिए भारतीय संस्कृति का पुनरुत्थान सर्वोपरि था, जिसके बिन भारत की स्वतंत्रता का कोई मोल नहीं था। ये थे ‘लोकमान्य’ केशव बाल गंगाधर तिलक, जिन्होंने अपने क्षेत्र के युवाओं में राष्ट्रवाद की भावना को जागृत किया। इनसे चापेकर बंधु काफी प्रेरित थे, और इनके पदचिह्नों पर चलते हुए ही तीनों बंधुओं ने इतिहास रचा।

तिलक जी की प्रेरणा से उन्होंने युवकों का एक संगठन व्यायाम मंडल तैयार किया। ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति उनके मन में बाल्यकाल से ही तिरस्कार का भाव था। दामोदर पंत ने ही तत्कालीन बॉम्बे में रानी विक्टोरिया के पुतले पर तारकोल पोत कर, गले में जूतों की माला पहना कर अपना रोष प्रकट किया था। 1894 से चापेकर बंधुओं ने पूना में प्रति वर्ष शिवाजी एवं गणपति समारोह का आयोजन प्रारंभ कर दिया था। इन समारोहों में ये बंधु शिवाजी श्लोक एवं गणपति श्लोक का पाठ करते थे।

और पढ़ें: ‘इतिहास में केवल मुगलों का महिमामंडन, अब हमें इतिहास लिखने से कौन रोक सकता है?’

शिवाजी श्लोक के अंश अनुसार

“किसी तुच्छ व्यक्ति की भांति शिवाजी राजे की कहानी दोहराने मात्र से स्वाधीनता प्राप्त नहीं की जा सकती। आवश्यकता इस बात की है कि शिवाजी राजे और पेशवा बाजीराव  की तरह तेज़ी के साथ काम किए जाएं। आज हर भले आदमी को तलवार और ढाल पकड़नी चाहिए, यह जानते हुए कि हमें राष्ट्रीय संग्राम का उत्तरदायित्व उठाना होगा। हम धरती पर उन शत्रुओं का रक्त बहा देंगे, जो हमारे धर्म का विनाश कर रहे हैं। हम तो मारकर मर जाएंगे, लेकिन तुमअयोग्य लोगों की भांति स़िर्फ कथाएँ सुनते रहोगे। गणपति श्लोक में धर्म और गाय की रक्षा के लिए कहा गया,  पर धिक्कार है कि तुम्हें इस दासता के जीवन पर तनिक भी लज्जा नहीं है। ये अंग्रेज़ कसाइयों की तरह गाय और बछड़ों को मार रहे हैं, उन्हें इस संकट से मुक्त कराओ। मरो, परंतु अंग्रेजों को मारकर। नपुंसक होकर धरती पर बोझ न बनो। इस देश को हिंदुस्तान कहा जाता है, अंग्रेज़ भला किस तरह यहां राज कर सकते?”

परंतु ये केवल अवैध धर्मांतरण के विरुद्ध नहीं थे, ये सशस्त्र क्रांति के पक्षधर भी थे एवं ये तीनों भाई लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के सम्पर्क में थे। ये तीनों भाई तिलक जी को गुरुवत्‌ सम्मान देते थे। किसी अत्याचार-अन्याय के सन्दर्भ में एक दिन तिलक जी ने चापेकर बन्धुओं से कहा, “शिवाजी ने अपने समय में अत्याचार का विरोध किया था, किन्तु इस समय अंग्रेजों के अत्याचार के विरोध में तुम लोग क्या कर रहे हो?” इसके पश्चात इन तीनों भाइयों ने क्रान्ति का मार्ग अपना लिया, एवं संकल्प लिया कि ये अंग्रेज अधिकारियों को छोड़ेंगे नहीं। इनके सहयोग में महादेव विनायक रानाडे और खानडो विष्णु साठे जैसे ओजस्वी युवा क्रांतिकारी भी आए। संयोगवश वह अवसर भी आया, जब २२ जून १८९७ को पुणे के ‘गवर्नमेन्ट हाउस’ में महारानी विक्टोरिया की षष्ठिपूर्ति के अवसर पर राज्यारोहण की हीरक जयन्ती मनायी जाने वाली थी। इसमें वाल्टर चार्ल्स रैण्ड और आयर्स्ट जैसे क्रूर आत्तताई भी शामिल हुए, जिनके अत्याचारों की चर्चा पूरे भारत में थी। दामोदर हरि चापेकर और उनके भाई बालकृष्ण हरि चापेकर भी महादेव के साथ वहां पहुंचे और इन दोनों अंग्रेज अधिकारियों के निकलने की प्रतीक्षा करने लगे।

रात १२ बजकर, १० मिनट पर रैण्ड और आयर्स्ट निकले और अपनी-अपनी बग्घी पर सवार होकर चल पड़े। जैसे ही बग्घी समक्ष आई, दामोदर ने हुंकार लगाई, ‘गोंडया आला रे’, यानी अपना लक्ष्य [रैंड] आ चुका है, चूकना नहीं है। योजना के अनुसार दामोदर हरि चापेकर रैण्ड की बग्घी के पीछे चढ़ गया और उसे गोली मार दी, उधर बालकृष्ण हरि चापेकर ने भी आयर्स्ट पर गोली चला दी। आयर्स्ट तो तुरन्त मर गया, परंतु रैण्ड कई दिनों तक अपने घावों से अस्पताल में जूझता रहा और अंत में 3 जुलाई को मृत्युलोक को प्राप्त हुआ। पुणे की उत्पीड़ित जनता चापेकर-बन्धुओं की जय-जयकार कर उठी। गुप्तचर अधीक्षक ब्रुइन ने घोषणा की कि इन फरार लोगों को गिरफ्तार कराने वाले को २० हजार रुपए का पुरस्कार दिया जाएगा।

और पढ़ें:  लीजिए ‘भारत एक खोज’ का एन्टीडोट तैयार है

असंभव को संभव कर चुके थे तीनों महावीर

प्रारंभ में किसी को विश्वास नहीं हुआ, परंतु असंभव संभव हो चुका था। परंतु अंग्रेज़ बावलों की भांति रैण्ड का वध करने वालों को ढूँढने में जुट गई, और अंत में वे सफल, क्योंकि ये सूचना चापेकर बन्धुओं के व्यायामशाला के ही दो सदस्यों ने दी- गणेश शंकर द्रविड़ और रामचंन्द्र द्रविड़। इन दोनों ने पुरस्कार के लोभ में आकर अधीक्षक ब्रुइन को चापेकर बन्धुओं का सुराग दे दिया। इसके पश्चात दामोदर हरि चापेकर पकड़ लिए गए, पर बालकृष्ण हरि चापेकर पुलिस के हाथ न लगे। सत्र न्यायाधीश ने दामोदर हरि चापेकर को मृत्युदंड दिया, पर उनके मुख पर तनिक भी चिंता नहीं आई। कारागृह में तिलक जी ने उनसे भेंट की और उन्हें ‘गीता’ प्रदान की। १८ अप्रैल १८९८ को प्रात: वही “गीता’ पढ़ते हुए दामोदर हरि चापेकर फांसी घर पहुंचे और फांसी के तख्ते पर लटक गए। उस क्षण भी वह “गीता’ उनके हाथों में थी।

उधर बालकृष्ण चापेकर ने जब यह सुना कि उसे हिरासत में न ले पाने से पुलिस उसके सगे-सम्बंधियों को सता रही है तो वह स्वयं पुलिस थाने में उपस्थित हो गए। परंतु उनका बलिदान व्यर्थ नहीं गया। वासुदेव चापेकर ने अपने साथी महादेव विनायक रानाडे को साथ लेकर उन द्रोही द्रविड़-बन्धुओं को घेर कर उनका संहार कर दिया। इसके पश्चात हेड कॉन्स्टेबल रमा पांडु को मारते हुए वे दोनों पकड़े गए। फिर वासुदेव हरि चापेकर को 8 मई 1899, महादेव विनायक रानाडे को 10 मई 1899 एवं वासुदेव हरि चापेकर को 12 मई 1899 को मृत्युदंड दिया गया।तिलक जी द्वारा प्रवर्तित ‘शिवाजी महोत्सव‘ तथा ‘गणपति-महोत्सव’ ने इन चारों युवकों को देश के लिए कुछ कर गुजरने हेतु क्रांति-पथ का पथिक बनाया था। उन्होंने ब्रिटिश राज के आततायी व अत्याचारी अंग्रेज अधिकारियों को बता दिया गया कि हम अंग्रेजों को अपने देश का शासक कभी नहीं स्वीकार करते और हम तुम्हें गोली मारना अपना धर्म समझते हैं। इस प्रकार अपने जीवन-दान के लिए उन्होंने देश या समाज से कभी कोई प्रतिदान की चाह नहीं रखी।

और पढ़ें: अयोध्या में रामायण विश्वविद्यालय मार्क्सवादी इतिहासकारों के लिए एक कड़ा तमाचा है

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