कौन होगा राजस्थान का मुख्यमंत्री? राजनेता होना आसान नहीं हैं। किसी भी मौके और अवसर को अपने अनुकूल बना लेना ही राजनेता की सबसे बड़ी खूबी होती हैं। ऐसा न कर पाने वाले को राजनेता ही नहीं कहा जा सकता और यदि कोई इसके बावजूद ऐसी अपेक्षा रखता है तो उसे संन्यास की ओर रुख करना चाहिए, क्योंकि राजनीति ऐसे लोगों के लिए बनी ही नहीं है। कांग्रेस की ही बात करें तो आज भले ही वो सत्ता पाने में कमज़ोर है। बमुश्किल दो राज्यों में उसकी सरकार है पर वहां कई पुराने नेता हैं जो कुर्सी पर कुंडली मार बैठे हुए हैं, फिर चाहे वो पार्टी का संगठनात्मक पद हो या राज्य सरकार के मुख्यमंत्री का।
इनमें सबसे अव्वल नंबर पर अशोक गहलोत आते हैं, जो पहले लंबे समय तक कांग्रेस के संगठनात्मक ढांचे के अहम हिस्सा रहे और बाद में राजस्थान के सीएम बने। अब लगभग यह तय माना जा रहा है कि गहलोत कांग्रेस के अध्यक्ष बनने जा रहे हैं और तत्पश्चात उन्हें राजस्थान के मुख्यमंत्री की कुर्सी खाली करनी ही पड़ेगी। जिसके बाद पासा पुनः सचिन पायलट के पास जाता दिख रहा है, जहां यदि पायलट इस मौके का फायदा उठाने में कामयाब नहीं रहते, तो फिर उन्हें हिमालय जाकर संन्यास लेने पर विचार ही कर लेना चाहिए, क्योंकि इससे बेहतर विकल्प उनके लिए और कुछ नहीं होगा।
गहलोत को बना दिया गया था मुख्यमंत्री
वर्ष था 2018 का जब “मोदी तुझसे बैर नहीं, वसुंधरा तेरी खैर नहीं” वाले एक नारे ने कांग्रेस को राजस्थान में फिर से जीवनदान दे दिया था। 2018 का यह विधानसभा चुनाव तत्कालीन राजस्थान कांग्रेस इकाई के अध्यक्ष सचिन पायलट के नेतृत्व में लड़ा गया था। चुनाव कांग्रेस ने सैंचुरी लगाकर जीता। 2018 विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी को 100 सीटों पर जीत मिली और मौका आया मुख्यमंत्री के चेहरे के चयन का।
यहां सबकुछ पायलट के पक्ष में जाता दिख रहा था पर अन्तोगत्वा हुआ वही जो कांग्रेस पार्टी की परिधि रही है। योग्य के आगे विश्वासपात्र और पुराने चाटुकार को कल भी तरजीह मिलती थी, आज भी मिलती है और आगे भी मिलती रहेगी। उस समय 10 जनपथ से अशोक गहलोत के नाम पर मुहर लगी और वे मुख्यमंत्री भी बन गए।
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तब राज्य की राजनीति में एक युवा राजनेता के तौर पर सचिन पायलट को चुनाव जिताने और रणनीति कांग्रेस के लिए अनुकूल करने का मात्र यह प्रतिफल मिला कि उन्हें उप मुख्यमंत्री बनकर ही संतोष करना पड़ा। इस दर्द को स्वयं में समेटे हुए पायलट चलते रहे। हालांकि 2020 में उनके यह दर्द विस्फोटक स्थिति में पहुंचकर फट गया। उस दौरान पायलट समर्थक विधायक सचिन पायलट के साथ रिज़ॉर्ट पॉलिटिक्स की शुरुआत करते हुआ बगावत पर उतर आए।
बगावत का नहीं मिला फायदा
इस बगावत में कहां कमी रही यह तो पायलट ही बेहतर जानते होंगे, क्योंकि इस बगावत का कोई खास प्रभाव या पायलट खेमे के लिए कोई खास परिणाम बाहर नहीं आए। और तो और तब सचिन पायलट के हाथों से अध्यक्ष पद और उप मुख्यमंत्री की कुर्सी दोनों चली गई। बात का सार यह निकला कि बगावत का एक प्रतिशत फायदा न पायलट उठा पाए और न ही उनके साथी। सारा का सारा लाभ मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को हुआ, जहां उनके गले की फांस सचिन पायलट अब एक सामान्य विधायक बनकर ही रह गए थे।
अब समय फिर एक बार पायलट की ओर आता दिख रहा है, जहां अशोक गहलोत राष्ट्रीय राजनीति की ओर रुख कर रहे हैं। कांग्रेस अध्यक्ष बनने पर उन्हें राजस्थान का मुख्यमंत्री पद त्यागना पड़ेगा। हालांकि अशोक गहलोत को एक अति महत्वाकांक्षी नेता के रूप में देखा जाता है। इसकी भान सभी को है कि वो कांग्रेस का अध्यक्ष बनने के बाद भी राजस्थान को इतनी आसानी से नहीं छोड़ेंगे। वो अपने बाद ऐसे व्यक्ति को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठाना चाहेंगे जो उनके खेमे का ही हो।
पायलट की राह में कई मुश्किलें
वहीं, राजस्थान सरकार में मुख्यमंत्री गहलोत के समर्थकों के साथ-साथ कई विधायक भी सचिन पायलट के नीचे काम नहीं करना चाहते। उनमें से कुछ का तर्क है कि उन्हें किसी ऐसे व्यक्ति के नेतृत्व को स्वीकार नहीं करना जिसने कथित तौर पर पार्टी के विरुद्ध विद्रोह किया था। राजस्थान सरकार में मंत्री अशोक चांदना द्वारा सचिन पायलट पर हालिया हमला यह दर्शाता भी है कि उन्हें (पायलट को) अभी और समर्थन जुटाने की आवश्यकता है। इसके अलावा राजस्थान में कांग्रेस के कई विधायक वरिष्ठ हैं, जो सचिन पायलट के अंडर में काम करने के लिए तैयार नहीं है।
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अर्थात इस बार भी सचिन पायलट की राह में रोड़ा तो है पर यह उनके बल-बुद्धि-विवेक पर निर्भर करता है कि वो इस बार सोनिया गांधी को कैसे गहलोत के विरोध में निर्णय करते हुए उन्हें राज्य की सत्ता सौंपने के लिए विवश करते हैं। चूंकि कांग्रेस का अध्यक्ष कोई भी बन जाए पर यह सबको पता है कि नियंत्रण स्थिर रहेगा। हर निर्णय का हस्ताक्षर उसी 10 जनपथ से होगा, जहां से डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार चलती थी और रिमोट कंट्रोल सोनिया गांधी के हाथ में होता था ताकि सरकार पर नियंत्रण रखा जा सके।
इस स्थिति में जहां इस बार अशोक गहलोत का कांग्रेस अध्यक्ष बनते ही मुख्यमंत्री की कुर्सी से हटना तय माना जा रहा है। अब भी सचिन पायलट इस अवसर को भुना नहीं पाए तो ऐसी स्थिति में उन्हें स्वतः राजनीति से संन्यास लेने का निर्णय कर लेना चाहिए। ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद, आरपीएन सिंह जैसे भाजपा के खेमे में जाने की योजना भी थी तो उनके पास कई अवसर भी आए पर तब भी अपनी उपेक्षा स्वीकार करना पायलट को अधिक उचित लगा। वरना 2020 में सिंधिया पार्ट 2 बनने के सभी अवसर पायलट के पास थे पर उन्होंने जो चुना उसका भुगतान वो अब तक कर ही रहे हैं।
परंतु अब समय फिर स्वयं को दोहरा रहा है और इस बार भी अगर सचिन पायलट इस मौके का फायदा नहीं उठा सके, तो उन्हें निश्चित रूप से राजनीतिक संन्यास लेने पर विचार करते हुए हिमालय का रुख कर ही लेना चाहिए।
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