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पुन: मूषको भव: रवीश कुमार की ‘कुछ नहीं’ से ‘कुछ नहीं’ तक की अद्भुत कथा

26 वर्षों के बाद अब रवीश कुमार भी यूट्यूब पर आ गए!

Animesh Pandey द्वारा Animesh Pandey
8 October 2022
in मत
रवीश कुमार
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रवीश कुमार यूट्यूब चैनल: अब चलो बंधुओं, एक कथा सुनाते हैं, एक मूषक और एक बिलाव की। वैसे ये तो टॉम एंड जेरी से भिन्न नहीं थे, परंतु ये वास्तव में टॉम एंड जेरी भी नहीं थे, क्योंकि मूषक चतुर नहीं भीरु था। उसे अपना जीवन कष्टदायी और असहनीय प्रतीत होता था। उसने इंद्रदेव की उपासना की और वर मांगा कि उसे भी बिलाव का जीवन मिले। इन्द्रदेव को लगा कि इसमें क्या समस्या है, ऐसे में वो बोले, तथास्तु। पर कथा वहीं पर खत्म हो जाए तो वो कथा थोड़े न हुई। मूषक की इच्छा और बढ़ी, वह बिलाव से फिर श्वान हुआ, श्वान से मानव, मानव से सिंह, सिंह से देव और फिर देव से जब देवराज इन्द्र के सिंहासन पर आधिपत्य स्थापित करने की इच्छा कर बैठा, तो देवराज इन्द्र भी बोल पड़े, ये अधिक हो रहा है, और बोले, “पुनः मूषको भवः”

रवीश कुमार की वर्तमान अवस्था इसी मूषक समान है। इस लेख में जानेंगे कि कैसे वे पत्रकारिता के मूषक से पुनः पत्रकारिता के मूषक बने हैं और कैसे इस बार उनका पतन अचल है।

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पत्रकारिता के मूषक रवीश कुमार

हाल ही में ‘पत्रकारिता की मिसाल’, राजा रवीश कुमार ने अपने नये रोजगार की घोषणा करते हुए फेसबुक पर बताया, “यह मेरा यूट्यूब चैनल है, अभी हाथ साफ कर रहा हूं। धीरे-धीरे रफ्तार बढ़ेगी। कभी पॉडकास्ट की शक्ल में, तो कभी वीडियो की शक्ल में”

देखते ही देखते इनके चैनल पर ढाई लाख से अधिक सब्सक्राइबर जुड़ने लगे। ऐसे में जब रवीश बाबू की तुलना अभी मूषक से की, आप भी सोचे होंगे, भला ये कौन सी माया है? इसके पीछे भी एक संबंध है, जो इन्हीं के कर्मों से है और उसी कथा से है, जो रवीश के कर्मों में स्पष्ट झलकता है। 1996 में जो यात्रा एनडीटीवी के दफ्तरों में प्रारंभ हुई थी, वो अब केवल यूट्यूब और फ़ेसबुक के गलियारों तक सीमित रह गई है। रवीश कुमार एक समय पत्रकारिता के देवराज बनने चले थे, परंतु अपने कर्मों के कारण वह पुनः मूषक बन चुके हैं, जिन्हे कोई भाव भी नहीं देता।

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जानिए एक-एक चरण

परंतु ऐसा हुआ कैसे? इसके कई चरण है, जिन्हें एक-एक करके जानना अति आवश्यक है।

सर्वप्रथम जानते हैं कि रवीश कुमार पत्रकारिता के मूषक से बिलाव कैसे बने? 5 दिसंबर 1974 को मोतिहारी में जन्मे रवीश कुमार एक उच्च मध्यम वर्ग परिवार से नाता रखते हैं। उन्होंने लोयोला हाई स्कूल, पटना से अपनी प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त की और फिर उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए वह दिल्ली आ गये। दिल्ली विश्वविद्यालय के देशबंधु कॉलेज से स्नातक उपाधि प्राप्त करने के बाद उन्होंने भारतीय जन संचार संस्थान (IIMC) से पत्रकारिता में स्नातकोत्तर डिप्लोमा प्राप्त किया।

रवीश कुमार केवल 22 वर्ष के थे जब उन्होंने NDTV जॉइन की थी। परंतु उनकी प्रतिभा अनदेखी नहीं गई और शीघ्र ही उन्हें रिपोर्टरों की मंडली में शामिल किया गया। उनकी प्रतिभा को देखते हुए उन्हें एक विशेष प्राइम टाइम शो भी दिया गया- ‘रवीश की रिपोर्ट’, जहां वो गांव, कस्बों, चाय चौपाल पर लोगों से चर्चा करते और उनकी दिनचर्या पर बातचीत करते। क्या इससे पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था? ऐसा भी नहीं था परंतु अधिकतम पत्रकार अपनी रिपोर्ट या तो स्टूडियो से देते या फिर अगर देते तो अंग्रेजी में देते जिससे जनता को तनिक भी मतलब नहीं था। लोग देसी रिपोर्टिंग चाहते थे जिसमें अपनापन हो ‘मिट्टी की खुशबू’ हो और NDTV ने रवीश कुमार के माध्यम से उन्हें वही प्रदान कराया।

यहीं से मूषक पत्रकार रवीश बने बिलाव पत्रकार रवीश, क्योंकि बिलाव में गुण होता है – चपलता का और तेज तर्रार होने का। परंतु कथा के अनुसार, मूषक से बिलाव बना प्राणी फिर श्वान भी तो बना, तो वो परिवर्तन कैसे आया? स्मरण है 2004, जब सत्ता परिवर्तन हुआ, और सबकी आशाओं के विपरीत कांग्रेस ने सत्ता ग्रहण की? रवीश ने इसका लाभ उठाया और देखते ही देखते वह बन गए श्वान पत्रकार, क्योंकि श्वान निष्ठावान भी तो होता है, और हम सभी जानते हैं कि रवीश यूपीए प्रशासन के प्रति आज भी कितने निष्ठावान हैं।

अब आते हैं मानव और देव के दृष्टिकोण पर। युद्धकला में रघुनाथ राव, राजनीति में जयप्रकाश नारायण और पत्रकारिता में रवीश कुमार पांडे में क्या समानता है? चकरा गए? समानता है और वो ये है कि ये सभी अपने क्षेत्र के विद्वान थे और अपने देश को बहुत कुछ दे सकते थे परंतु ये सभी अपने मूल उद्देश्य से भटक गए और बन गए उसी राष्ट्र के शत्रु, जिसे उन्हें बचाना था। ये जानबूझकर नहीं बने परंतु इनके विचार, इनका दृष्टिकोण इन्हें जाने अनजाने उसी ओर ले गया।

और पढ़ें- अग्निपथ योजना के कारण भड़की हिंसा के लिए केवल रवीश कुमार हैं जिम्मेदार!

आदर्श पत्रकार

अब जब आप किसी पत्रकारिता के विद्यार्थी से पूछते हैं कि उनका आदर्श पत्रकार कौन है तो फटाक से उत्तर आता है – रवीश कुमार। इन्हें यूं ही ये पुरस्कार प्राप्त नहीं हुए –

  • हिन्दी पत्रिका रंग में गणेश शंकर विद्यार्थी पुरस्कार २०१० के लिये राष्ट्रपति के हाथों (२०१४ में प्रदान किया गया).[7]
  • पत्रिका रंग में रामनाथ गोयंका पुरस्कार – २०१३
  • इंडियन टेलिविजन पुरस्कार – २०१४ – उत्तम हिन्दी एंकर
  • कुलदीप नायर पुरस्कार – २०१७ – पत्रकारिता क्षेत्र में उनके योगदानों के लिए।

परंतु हर वस्तु के शौर्य एवं उसके वैभव का भी अंत या एक्सपायरी डेट होता है, और यहीं पर रवीश कुमार के अंदर कथा के समान देवराज इन्द्र को अपदस्थ करने वाली इच्छा जागी। जब वह पत्रकारिता में दैवतुल्य हो चुके थे, तो यह वही समय था, जब 2014 में केंद्र सरकार में नरेंद्र मोदी ने सत्ता संभाली थी।

जब मोदी सरकार ने सत्ता संभाली तो उन्हें आभास था कि उन्हें पत्रकारों से कोई विशेष सहानुभूति या समर्थन नहीं मिलेगा। परंतु उन्हें ये अंदेशा बिल्कुल भी नहीं था कि सत्ता परिवर्तन का दुख रवीश कुमार को कुछ अधिक ही होगा। रवीश कुमार ने नरेंद्र मोदी को मानो अपना निजी शत्रु ही बना लिया और जो भी व्यक्ति उनके समर्थन में एक शब्द भी बोल देता, उसे वो तुरंत अंधभक्त या मोदीभक्त घोषित कर देते। आज जिस गोदी मीडिया के नाम से वामपंथी दक्षिणपंथियों को चिढ़ाने का भद्दा और असफल प्रयास करते हैं, वो भी इसी व्यक्ति की देन है।

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रवीश कुमार ने अपना ही विनाश किया

परंतु ठहरिए, ये तो कुछ भी नहीं है। अपनी कुंठा में रवीश कुमार ने न केवल अपना विनाश किया अपितु कई लोगों के जीवन को बर्बाद करने का प्रयास किया। जो रवीश कुमार कभी लोगों के साथ बैठकर चाय की टपरी पर चुसकियां लगाते थे उन्होंने एक आम नागरिक की गाड़ी के पीछे अपने गुंडे केवल इसलिए लगा दिया था क्योंकि उसने ट्रैफिक नियम तोड़ते समय रवीश कुमार की फोटो खींच ली थी! ये तो कुछ भी नहीं है, जब पूर्वोत्तर दिल्ली दंगों की आग में जल रहा था तो इस महोदय की प्राथमिकता यह नहीं थी कि खबरों को किस तरह दिखाया जाए अपितु यह थी कि कैसे कट्टरपंथी मुसलमानों को कोई भी नुकसान नहीं होने दियाए जाए, जैसे शाहरुख पठान को उन्होंने अनुराग मिश्रा बताकर हिंदुओं की छवि को धूमिल करने का प्रयास किया था।

एक समय रवीश कुमार की साख ऐसी थी कि वे जन जन में अपनी पहुंच बनाते थे। ‘रवीश की रिपोर्ट’ के चर्चे आज भी गली मुहल्लों में होते हैं। फिर सिंह कि भांति ये किसी को भी घेर सकते थे, भले विचारधारा जैसी भी हो, परंतु शैली ऐसी थी कि कोई उनपर संदेह नहीं कर सकता था, और अपना आचरण ऐसा रखा था कि शीघ्र ही पत्रकारिता में दैवतुल्य होने के मुहाने पर आ चुके थे, परंतु देवराज होने की अधीरता में उन्होंने ऐसे करतब किये कि आज रवीश कुमार ‘पुनः मूषको भवः’ को आत्मसात करते दिखाई दे रहे हैं, जिसके लिए वे ही दोषी हैं, कोई अन्य नहीं।

वर्ष 2019 में इस व्यक्ति को पत्रकारिता के लिए मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित किया गया। ध्यान देने वाली बात है कि शांति और समरसता लाने के लिए एक समय मलाला यूसुफजई को नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था, आगे आप स्वयं समझदार हैं। रही बात पत्रकारिता की तो वो उसी दिन खत्म हो चुकी थी जिस दिन रवीश कुमार ने नोटबंदी के विरोध में अपनी स्क्रीन अंधेरी कर ली थी और जो व्यक्ति जमीन से हटकर केवल स्टूडियो और फ़ेसबुक पर बकैती झाड़ता फिरे वो और कुछ भी हो जाए, पत्रकार तो कतई नहीं हो सकता।

और पढ़ें- Hathway Cable ने NDTV को अपने चर्चित चैनलों की श्रेणी से क्या हटाया रवीश कुमार छाती पीटने लगे

नित्य अनर्गल प्रलाप

वैसे रवीश कुमार आजकल किस स्तर की पत्रकारिता करने लगे हैं इससे भी कोई अपरिचित नहीं है। एक समय देश के जटिल मुद्दों पर चर्चा करने वाला यह व्यक्ति अब इस बात पर चिंतित है कि आलिया भट्ट की शादी में इन्हें क्यों नहीं बुलाया गया और दिल्ली में ब्राह्मणों की विशेष बस्ती क्यों है? हम मज़ाक नहीं कर रहे हैं यह वास्तव में इनके फ़ेसबुक अकाउंट की देन है जहां वो नित्य अनर्गल प्रलाप करते हैं। अपनी ‘व्यंग्यात्मक’ शैली में रवीश कुमार पांडे ने हाल ही में  फ़ेसबुक पर पोस्ट किया, “दक्षिण दिल्ली की एक बस्ती। इस बस्ती का नाम कैसे पड़ा, कैसे बसी, इसका अध्ययन करना चाहिए” –

ravish kumar

कभी अपने वक्तव्य से सत्ता की चूलें हिला देने वाला रवीश कुमार मोहल्ले का वो बुढ़ऊ हो चुका है, जो चाहता है कि सब उसकी सुने पर भाव कोई नहीं देगा। फ़ेसबुक पर निरंतर मोदी और सनातनियों के विरुद्ध करुण क्रंदन छापता है, अब इससे अधिक सभ्यता की अनुमति हमरी अंतरात्मा न दे पाएगी। इनके कमेन्ट सेक्शन स्पष्ट करते हैं कि इनका पतन कितनी बुरी तरह और कितनी शीघ्रता से हुआ। कहां ‘रवीश की रिपोर्ट’ छापते थे, और कहां अभिसार शर्मा की लाइन में आ गए हैं। जब हम रवीश कुमार को ‘पुनः मूषकों भवः” कहते हैं, तो हमारा आशय इसी पतन की ओर है, जहां वे बस इतनी अटेन्शन कमाना चाहते हैं, ताकि चंद सेकेंड की फ़ेम और दो वक्त की रोटी का जुगाड़ हो सके।

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कहते हैं कि राजनीति में शब्दों से ज्यादा प्रभाव प्रतीकों का होता है। इसीलिए रविवार को लखनऊ के डिफेंस एक्सपो मैदान पर हुए पुलिस भर्ती...

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