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5 अवसर, जब शत्रु के हाथ से रेत की भाँति फिसले हमारे वीर

अंतिम श्वास तक देश की सेवा करना चाहते थे ये!

Animesh Pandey द्वारा Animesh Pandey
18 March 2023
in इतिहास
5 अवसर, जब शत्रु के हाथ से रेत की भाँति फिसले हमारे वीर
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जब जरासंध के निरंतर आक्रमण पर श्रीकृष्ण ने मथुरा त्याग दी, तो उन्हें “रणछोड़” की उपाधि दी गई। तो क्या वे कायर थे? नहीं, परंतु श्रीकृष्ण को ज्ञात था कि जरासंध को परास्त करने के लिए ये सही समय नहीं, और वे अपनी भूमि को दांव पे नहीं लगाना चाहते थे। ऐसे ही कुछ वीर इस भूमि पे जन्मे है, जिन्होंने दो कदम इसलिए पीछे खींचे, ताकि एक लंबी छलांग लगाकर शत्रु को चारों खाने चित्त कर सके।

इस लेख में मिलिए उन लोगों से, जिन्होंने भारत के शत्रुओं को ऐसा छकाया कि वे हाथ मलते ही रह गए। तो अविलंब आरंभ करते हैं।

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  • छत्रपति शिवाजी महाराज –

सर्वप्रथम बात करते हैं छत्रपति शिवाजी महाराज की। इन्होंने हिंदवी स्वराज्य की नींव रखी, और मुगलों की नाक में दम कर दिया। परंतु पुरंदर के समझौते ने उनके विजय अभियान पर कुछ समय के लिए रोक लगाई।

इसके अंतर्गत शिवाजी महाराज मुगल राजधानी आगरा आये। परंतु औरंगजेब का स्वभाव देखकर वे क्रोधित हुए, और उन्होंने दरबार त्याग दिया। इन्हे आगरा में नज़रबंद किया गया।

और पढ़ें:   जब छत्रपति शिवाजी महाराज के प्रति आकर्षित हुई थी औरंगजेब की पुत्री

पर ये इनके अनुयाइयों को स्वीकार न था। जब कुछ मराठों को ज्ञात हुआ कि शिवाजी राजे फल और मिठाई का कुछ अधिक सेवन करने लगे हैं, तो उन्होंने इसी को अपना अस्त्र बनाया। बहिरजी नाईक के नेतृत्व में एक योजना बनी, और शिवाजी महाराज एवं उनके पुत्र को  “फलों की टोकरी” में सकुशल आगरा से बाहर निकलवाया। मुगलों को जब तक पता चला,छत्रपति शिवाजी  राजे फुर्र हो चुके थे।

  • रास बिहारी बसु –

क्रांति अभियान के एक महत्वपूर्ण हिस्सा थे ये। इनके भी किस्से अजब हैं। जब लॉर्ड हार्डिंग पर आघात हुआ, तो ये प्रमुख आरोपियों में से एक थे। परंतु किसी को कानों कान खबर नहीं हुई, और इन्होंने वन विभाग में रहते हुए लॉर्ड हार्डिंग के हमले के निंदा प्रस्ताव का भी समर्थन किया!

ऐसे ही जब गदर आंदोलन के बाद पुलिस को इनकी गतिविधियों का आभास हुआ, तो इन्होंने जापान में शरण ली। इनका तरीका भी ऐसा था कि कोई अंग्रेज़ सोच भी न सके। इन्होंने पासपोर्ट में अपने आप को रवींद्रनाथ टेगोर का भांजा बताया, और जब तक ये जापान नहीं पहुँच गए, किसी को शक भी नहीं हुआ। इन्होंने आगे चलकर इंडियन नेशनल आर्मी की नींव रखी।

  • बरिंद्र कुमार घोष –

जब देश में क्रांतिकारियों का आंदोलन प्रारंभ हुआ, तो उसके सर्वप्रथम प्रणेताओं में से एक थे बरिंद्र कुमार घोष। पर क्या आप जानते हैं कि ये कालापानी से सफलतापूर्वक भागे थे?

30 अप्रैल 1908 को खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी ने किंग्स्फोर्ड की हत्या का प्रयास किया जिसके फलस्वरूप पुलिस ने बहुत तेजी से क्रांतिकारियों की धर-पकड़ शुरू कर दी और दुर्भाग्य से 2 मई 1908 को श्री बारिन घोष को भी उनके कई साथियों सहित गिरफ्तार कर लिया गया।

उन पर “अलीपुर बम केस” चलाया गया और प्रारम्भ में ही उन्हें मृत्युदण्ड की सजा दे दी गयी परन्तु बाद में उसे आजीवन कारावास कर दिया गया।

उन्हें अंडमान की भयावह सेल्युलर जेल में भेज दिया गया जहाँ वह 1920 तक बन्दी रहे। परंतु बहुत कम लोग जानते है कि ये 1915 में कालापानी से बच निकले थे, और कुछ समय इन्होंने पुरी धाम में बिताया। परंतु जब यतींद्र नाथ मुखर्जी वीरगति को प्राप्त हुए, तो उसी झड़प में ये घायल हुए और इन्हे पुनः हिरासत में लिया गया।

  • भगत सिंह :-

अब इन्हे कौन नहीं जानता? भगत सिंह तो भारत में क्रांति का प्रतीक चिन्ह है।

परंतु जब सौंडर्स को उड़ाया गया था, तो स्थिति ऐसी नहीं थी।  १७ दिसम्बर को स्काट की गफलत में सांडर्स मारा गया।

इस घटना के बाद सुखदेव और भगत सिंह दुर्गा भाभी के घर पहुंचे  तक भगत सिंह अपने बाल कटवा चुके थे। जब वे दुर्गा भाभी के घर आये, तो वे समझ ही नहीं पाई कि अंग्रेज़ी वेशभूषा में ये कौन है? जब सुखदेव ने सारी बात बताई, तो हँसते हुए भगत ने कहा, “अगर मेरी भाभी ही नहीं पहचान पाई, तो इन गोरों की क्या बिसात?”

   और पढ़ें:   भगत सिंह के जीवन के अंतिम 12 घंटों की वो कहानी, जो रोंगटे खड़े कर देती है

पार्टी ने इन दोनों को सुरक्षित लाहौर से निकालने की जिम्मेदारी दुर्गा भाभी को दे दी। उन्होंने अपने घर में रखे एक हजार रुपये पार्टी को दे दिए। भगत सिंह के कह अनुसार कोई भी इन्हे पहचान नहीं पाया, जबकि पूरा लाहौर इनके पीछे छावनी में परिवर्तित हो गया।

  • नेताजी सुभाष चंद्र बोस

इनका किस्सा सबसे अनोखा है। सुभाष को नज़रबंद किया गया, और अंग्रेज़ सरकार इन्हे युद्ध पूरा होने तक जेल में ही रखना चाहती थी।

पर क्या सुभाष बाबू मानते? एक तो धाकड़, ऊपर से वीर सावरकर की सलाह उनके मन मस्तिष्क में गूँज रही थी।

अतः नजरबन्दी से निकलने के लिये सुभाष ने एक योजना बनायी। 16 जनवरी 1941 को वे पुलिस को चकमा देते हुए अपने घर से निकले। शरदबाबू के बड़े बेटे शिशिर ने उन्हे अपनी गाड़ी से कोलकाता से दूर झारखंड राज्य के धनबाद जिले (गोमोह) तक पहुँचाया। गोमोह रेलवे स्टेशन(वर्तमान में नेता जी सुभाष चंद्र बोस जंक्शन, गोमोह) से फ्रण्टियर मेल पकड़कर वे पेशावर पहुँचे।

“इस बैठक के बाद स्वतंत्रता आंदोलन की तस्वीर बदल गई”, वीर सावरकर और नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने क्या बातचीत की थी?

पेशावर में उन्हें फॉरवर्ड ब्लॉक के एक सहकारी, मियाँ अकबर शाह मिले। मियाँ अकबर शाह ने उनकी मुलाकात, किर्ती किसान पार्टी के भगतराम तलवार से करा दी।

इधर अंग्रेज़ ‘निगरानी’ में लगे रहे, और उधरभगतराम तलवार के साथ सुभाष पेशावर से अफगानिस्तान की राजधानी काबुल की ओर निकल पड़े। तालियां बजते रहनी चाहिए अंग्रेज़ों के लिए।

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वंदे मातरम्, विभाजन की मानसिकता और मोदी का राष्ट्रवादी दृष्टिकोण – इतिहास, संस्कृति और आत्मगौरव का विश्लेषण

10 November 2025

भारत के राजनीतिक और सांस्कृतिक इतिहास में वंदे मातरम् केवल एक गीत नहीं, बल्कि एक चेतना और राष्ट्र की आत्मा का उद्घोष रहा है। यह...

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