Overseas collections: किसी ने सही कहा था, “आप कुछ लोगों को हर समय उल्लू बना सकते हो, हर किसी को कुछ समय उल्लू बना सकते हो, पर सबको हर समय उल्लू नहीं बना सकते?” जहाँ हम ग़दर २, जेलर, OMG २ की सफलता पर प्रसन्न होते हैं, एक प्रश्न मन में आता है: ये Overseas collections का इनकी सफलता में कितना योगदान है?
विगत कुछ माह से ओवरसीज़ कलेक्शन नाम की समस्या ने अच्छे अच्छों को सोचने पर विवश कर दिया. क्या विदेशी कलेक्शन इन फिल्मों के लिए “बूस्टर डोज़” समान है, या ये कोई ऐसा राज़ छुपाया हुआ है, जिसके खुलते ही भारतीय सिनेमा पर घोर संकट आ सकता है? आइये इसी पर आज चर्चा करते हैं!
Overseas collections की वास्तविकता
एक सज्जन पुरुष ने कहा था, “पहले तो केवल भ्र्म हो सकता है, फिर हुआ तो ये संयोग हो सकता है, फिर हुआ तो एक पैटर्न और धीरे धीरे वह वस्तु आने वाले परिणाम का संकेत होगा!” ये बात भारतीय फिल्म इंडस्ट्री में ओवरसीज़ कलेक्शन के विषय में भी उपर्युक्त बैठती है!
अब पहले इतना सोचना नहीं पड़ता था. मानिये एक फिल्म १० करोड़ की है. वह हिट हो गई, कुछ ४० करोड़ उसने कमाए. तो उसमें २० से ३० करोड़ घरेलू कलेक्शन होता, और फिर जो बचा, वो विदेशी कलेक्शन. मतलब आपने भरपेट एक थाली निपटाई, तो उसके बाद जो मीठा मिला, वो है ओवरसीज़ कलेक्शन!
तो समस्या कहाँ है? समस्या तब आती है जब ये मिठाई पूरी थाली का स्थान ले ले. इसका तात्पर्य फ़िल्मी मार्केट से बस इतना है: अगर डोमेस्टिक कलेक्शन मूल फिल्म के बजट से कम हो, और Overseas collections उसकी भरपाई करने लगे, तो कुछ तो गड़बड़ है. आप ही सोचिये, किसी परीक्षा में परीक्षक आपके परीक्षा के अंकों को अधिक प्राथमिकता देगा, या उसके साथ आये प्रोजेक्ट के अंकों को?
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कोविड १९ की महामारी ने खोली पोल
इस चिंताजनक ट्रेंड के लक्षण २०१७ में ही दिखने लगे, परन्तु तब फिल्मों पे हमारा फोकस इतना तीव्र नहीं हुआ करता था. परन्तु कोविड १९ की महामारी के बाद, सब कुछ स्पष्ट होने लगा. अब जनता को उल्लू बनाना इतना भी सरल नहीं था!
सर्वप्रथम संकेत दिखे थे “गंगूबाई काठियावाड़ी” से. इसका बजट १६० करोड़ रुपये के आसपास था, और संजय लीला भंसाली की इस फिल्म को हिट घोषित होने के लिए २०० करोड़ का कलेक्शन चाहिए था. इसने २०२ करोड़ का कलेक्शन भी किया. परन्तु लोग एक बात पर ध्यान नहीं दिए, २०२ करोड़ का कलेक्शन कुल कलेक्शन था, घरेलू कलेक्शन तो १५० करोड़ के आसपास भी नहीं था!
अब इसी की तुलना कुछ वर्तमान फिल्मों से कीजिये, जो भारत में कम, “विदेश” में अधिक चले हैं! आपको पता चलेगा कि कहाँ गड़बड़ी हुई है! लेकिन ये समस्या केवल बॉलीवुड तक सीमित रहती तो कोई बात थी. अन्य फिल्म उद्योग भी बहती गंगा में हाथ धोने लगे हैं. कभी ये सोचा है कि तेलुगु और कन्नड़ उद्योग की भांति प्रतिस्पर्धी होने के बाद भी तमिल फिल्म उद्योग को लोग संदेह की दृष्टि से क्यों देखते हैं?
ज़्यादा दूर क्यों जाते हैं, तीन फिल्मों का उदहारण लेते हैं, “मास्टर”, “बीस्ट”, “वारिसु”. ये ऐसी फिल्में हैं, जो कंटेंट छोड़िये, मनोरंजन के पैरामीटर पर भी पास होने योग्य नहीं थी. परन्तु इन सभी फिल्मों ने वैश्विक तौर पर २०० करोड़ से अधिक का बिज़नेस किया. वो अलग बात है कि इनमें से किसी की भी घरेलू कलेक्शन सार्वजनिक नहीं हुई. ऐसा क्यों?
इससे एक प्रश्न उत्पन्न होता है: फिल्म की सक्सेस का पैमाना क्या होना चाहिए? क्या फिल्म ने दुनियाभर में कितना कमाया, ये चर्चा का विषय हो, या ये कि घरेलू कलेक्शन कितना था? इसे आप ऐसे भी सोच सकते हैं, प्रोजेक्ट में आपने पूरी कक्षा में टॉप किया, परन्तु फाइनल एग्जाम में आपके १०० में १० नंबर आये, तो आपका फाइनल रिजल्ट क्या होगा?
ये प्रवृत्ति चिंताजनक क्यों है?
अब Overseas collections पर उठ रहे इन प्रश्नों का समाधान क्या है? फ़िलहाल के लिए कुछ नहीं, क्योंकि इस ट्रेंड को नियंत्रण में रखने के लिए कोई ठोस अधिनियम नहीं है.
अपने देश में ED और CBI अनेकों वित्तीय अनियमितताओं का पता लग सकते हैं, परन्तु विदेशों में ऐसी धांधली को कौन कहाँ तक चेक करेगा? सर्वप्रथम, किस देश में कितने स्क्रीन पर फिल्म का प्रदर्शन हुआ, इसके भी कोई आंकड़े नहीं मिलते. बस फलाना कलेक्शन बोल दिया गया, और लोगों ने मान लिया। ऐसे कैसे चलेगा?
इसी कारणवश वित्तीय धांधली के लिए एक उपजाऊ भूमि तैयार हो जाती है. फिल्म का बजट १०० करोड़ हो, कुल कमाई १६० करोड़ की हो, जिसमें १३० करोड़ केवल घरेलू कलेक्शन हो, तो किसी को आपत्ति नहीं होगी. आपत्ति तब होती है, जब १३० करोड़ की कमाई हो, और घरेलू कलेक्शन फिल्म के बजट से भी कम हो.
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वैसे भी, इस समय भारतीय सिनेमा के कई धड़ों की हालत बहुत अच्छी नहीं है. ऐसे में अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिए आंकड़ों के साथ हेरफेर कोई अस्वाभाविक बात नहीं, परन्तु इसी के सहारे आप कब तक चलोगे?
जैसे जैसे हमारा फिल्म उद्योग एक नए युग में प्रवेश कर रहा है, ये जानना और भी अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है कि हमें पता हो कि कौन सी फिल्म कितना कमाती है, और कैसे कमाती है. आज तो देश में पनवाड़ी को दिए गए रुपये या टपरी पे उधार तक का हिसाब रखा जाता है, तो फिर ये ओवरसीज़ कलेक्शन को कौन सा लाइसेंस मिला है कि वो जांच के घेरे में नहीं आएगा? अगर अब भी नहीं समझे, तो जल्द ही एक और स्कैम की खोज होगी, और नुक्सान होगा तो सिर्फ सिनेमा उद्योग का!
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