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एक मुसलमान जिसका हृदय हिन्दू था: अकबर के अभिभावक के बेटे रहीम, महाराणा प्रताप को बताते थे फरिश्ता

रहीम की माँ मेवाती थीं

architsingh द्वारा architsingh
9 October 2024
in इतिहास, ज्ञान, संस्कृति
अब्दुर्रहीम ख़ान-ए-ख़ाना, महाराणा प्रताप

अब्दुर्रहीम ख़ान-ए-ख़ाना ने महाराणा प्रताप को क्यों बताया था 'फरिश्ता', पढ़िए

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भारतीय इतिहास में मध्यकाल एक ऐसा समय है जहाँ एक ओर तुर्कों, मुगलों आदि का प्रभाव बढ़ता जा रहा था, हिंदुओं के मंदिरों को लूटा जा रहा था तो दूसरी ओर यही वह समय था जब भक्ति का एक बड़ा आंदोलन भी खड़ा हो रहा था। ऐसा होना स्वाभाविक भी था, हिंदी के बड़े आलोचक रामचन्द्र शुक्ल का मानना है कि मुगलों के अत्याचार और हिन्दू विरोधी नीतियों के कारण अपने पौरुष से हताश हिन्दू जनता के पास भक्ति के सिवाय दूसरा कोई मार्ग ही नहीं था।

हालाँकि, भक्ति आंदोलन को लेकर अन्य बातें भी हमारे समक्ष आती हैं किंतु आज हम उन मतों के फेर में न पड़कर इसी कालखंड में हुए एक ऐसे मुसलमान भक्त कवि की बात करेंगे जो मुगल शासक अकबर के नवरत्नों में से एक थे। योद्धा के रूप में इनकी कुशलता को देखकर अकबर ने इन्हें खान-ए-खाना की उपाधि दी थी। जी हाँ, ये कोई और नहीं बल्कि अब्दुर्रहीम खान-ए-खाना थे। रहीम हुमायूँ के बेहद भरोसेमंद व्यक्ति बैरम ख़ाँ के पुत्र थे। हुमायूँ ने अपने जीवन के अंतिम दिनों में बैरम खाँ को ही अकबर का अभिभावक नियुक्त किया। बैरम खाँ की मृत्यु के पश्चात अकबर ने रहीम की माता से विवाह किया और उन्हें अपने दरबार में रहने दिया।

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रहीम मुगल सल्तनत के सेनापति थे, जहाँ एक ओर इस समय हिन्दू पूजा पद्धति को हर तरह से दबाने का प्रयास किया जा रहा था तो वहीं दूसरी ओर रहीम जैसे भक्त भी हो रहे थे जो मुसलमान होते हुए भी न सिर्फ कृष्ण की भक्ति करते थे बल्कि लिखते भी थे। इसे सनातन की खूबसूरती ही कहा जा सकता है कि एक ओर जहाँ इस्लाम को भय, लालच आदि के माध्यम से थोपा जा रहा था तो वहीं स्वयं अनेक तत्कालीन मुसलमान सनातन की ओर स्वयं ही खिंचे चले आ रहे थे।

हालाँकि, एक तथ्य यह भी है कि उस समय अनेक मुसलमान ऐसे थे जिनके पूर्वज हिन्दू थे लेकिन धर्मांतरण करके मुसलमान हुए। कहा जाता है कि मेवाती मुसलमान जमाल ख़ाँ की छोटी बेटी रहीम की माता थीं। इतिहास में जानकारी मिलती है कि जमाल खाँ राजपूतों के धर्मांतरण से मुसलमान बने मेवाती खानदान से ताल्लुक रखता था। इससे यही साबित होता है कि रहीम के पूर्वज तो हिन्दू ही थे। कहीं-कहीं रहीम की माता का नाम कृष्णप्रिया मिलता है किंतु यह कितना प्रामाणिक है यह अध्ययन का विषय है। लेकिन जो भी हो रहीम के काव्य में कृष्ण प्रेम और हिन्दू देवमाला, शस्त्रों, मिथकों आदि की जो प्रामाणिक जानकारी मिलती है उससे स्पष्ट होता है कि ये हिन्दू हृदय मुसलमान थे।

सोलह वर्ष की आयु तक आते-आते रहीम की औपचारिक शिक्षा पूरी हो गई थी। अब हुमायूँ के समय से चली आ रही मुग़ल नीति के तहत अकबर ने उनका निकाह मरहूम बैरम ख़ाँ के धुर विरोधी मिर्ज़ा अज़ीज़ कोका की बहन माहबानो से कराया। इस प्रकार सम्बन्ध जुड़ने से दरबार के दो गुटों के बीच वर्षों से चली आ रही कटुता और नफरत समाप्त हो गई।  साक्ष्यों के अनुसार, रहीम महाबानो बेगम से बेहद प्यार करते थे। रहीम जब 42 वर्ष के थे तब महाबानो का इंतकाल हो गया। रहीम ने अपनी बेगम के लिए दिल्ली में हुमायूँ के मकबरे के पास ही एक बेहद सुंदर मकबरा बनवाया, जो सम्भवतः मुगलकाल में किसी स्त्री का पहला मकबरा है।

मुगलों में जहाँ अनेक स्त्रियों के साथ विवाह की परंपरा दिखती है तो रहीम उससे ठीक अलग थे। महाबानो बेगम से पहले और उसके बाद भी रहीम के किसी और विवाह का कोई संकेत नहीं दिखाई देता। स्पष्ट है जीवन भर उन्होंने एकपत्नीव्रत निभाया जो उनके समय बहुत असामान्य बात थी। माँ की मेवाती परंपरा को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने अपनी बेटी का नाम कृष्णा बेगम और दोनों बेटों के नाम रहीम क़मर (चाँद) और रहीमपुत्र रखे।

रहीम के संदर्भ में एक प्रसंग ‘ओमेंद्र रतनू’ की पुस्तक ‘महाराणा’ में मिलता है। 1585 ईस्वी के दौरान अकबर ने रहीम को महाराणा प्रताप को पकड़कर बंदी बनाने के लिए भेजा था। अकबर के आदेश से महाराणा को पकड़ने के लिए रहीम ने मुगलिया सेना के साथ कूच कर दिया। यात्रा के दौरान रहीम ने जब आबू के निकट पड़ाव डाला था तब महाराणा प्रताप के पुत्र कुँवर अमर सिंह ने इनकी पुत्री और इनके परिवार की अन्य महिलाओं को बंदी बना लिया। अमर सिंह इन स्त्रियों को कैद करके अपने पिता के सन्मुख लेकर आए।

महाराणा प्रताप अपने पुत्र के इस कृत्य को देखकर अत्यंत क्रोधित हुए, उन्होंने कहा “यदि हम भी युद्ध में शत्रु की महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार करेंगे तो हममें और अकबर जैसे मुगलों के बीच क्या अंतर रह जाएगा? यह हमारे संस्कार है?” वास्तव में ऐसी उदारता और संस्कार सनातन में ही सम्भव हैं। जहाँ मुगल धोखे से कत्ल करने में भी संकोच नहीं करते थे, शत्रु की स्त्रियाँ तो उनके लिए महज लूट की वस्तु होती थीं वहीं यहाँ शत्रु को पराजित करके उनकी स्त्रियों को बंदी बनाकर रखना भी धर्म के विरुद्ध माना जाता है।

बहरहाल महाराणा प्रताप ने अमरसिंह को आदेश दिया, “इसी समय रहीम की पुत्री से राखी बंधवाओ और उसके भाई बनो। इसके पश्चात् सभी महिलाओं को ससम्मान खानखाना के शिविर में छोड़कर आओ।” ऐसा ही हुआ, अमरसिंह ने महिलाओं से क्षमा माँगते हुए अपने पिता महाराणा प्रताप के आदेश का पालन किया। कहा जाता है कि इस घटना का रहीम पर ऐसा असर हुआ कि उनका हृदय परिवर्तन हो गया। वे बिना लड़े ही आगरा वापस लौट गए। कहा जाता है अकबर ने जब उनसे बिना लड़े वापस आने का कारण पूछा तो रहीम का जवाब था कि “लड़ा मनुष्यों से जाता है शहंशाह, फरिश्तों से नहीं।”

वास्तव में रहीम को रहीम उनके संस्कारों ने बनाया और ये संस्कार निश्चित रूप से उनकी माता से उनमें आए। प्रेम, नीति और कृष्ण भक्ति के दोहे लिखने वाले रहीम ऊपर से मुसलमान थे किंतु यदि यह कहा जाए कि उनका अंतर्मन हिन्दू था, उनके संस्कार सनातनी थे तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। रहीम का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि वे मुगल शासन से प्रत्यक्ष रूप से जुड़े हुए थे, अकबर की मृत्यु के पश्चात रहीम का जीवन त्रासद हो गया।

इस दुःखद जीवन का कारण कोई नया नहीं था। पूरा मुगल वंश ही केवल और केवल सत्ता तथा हवस के लिए कत्ल, धोखे आदि के लिए जाना जाता है तो अकबर के बाद उपजी परिस्थितियों ने रहीम जैसे सहृदय व्यक्ति को भी अपनी जंजीरों में जकड़ा और अनेक प्रकार की प्रताड़नाएँ रहीम को भी सहनी पड़ीं। हालाँकि, फिर भी रहीम अपने संस्कार अक्षुण्ण रखते हुए 1627 में इस दुनिया को अलविदा कह गए।

(इस लेख को अर्चित सिंह ने लिखा है, जो दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के शोधार्थी हैं)

स्रोत: Abdul Rahim Khan-i-Khanan, अब्दुर्रहीम खानेखाना, Mughals, मुग़ल, मध्यकाल, Meidival India
Tags: Abdul Rahim Khan-i-KhananHistoryMedieval Indiaअब्दुर्रहीम ख़ान-ए-ख़ानाइतिहासमध्यकाल का भारतरहीम
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