वो जब्र भी देखा है तारीख़ की नज़रों ने
लमहों ने ख़ता की थी, सदियों ने सज़ा पाई…
उर्दू के अच्छे जानकार और शेर-ओ-शायरी के शौक़ीन मनमोहन सिंह को मुज़फ़्फ़र रज़्मी का ये शेर बेहद पसंद था। मनमोहन सिंह की अपनी ज़िन्दगी भी इस शेर के इर्द गिर्द ही रही। इतिहास से अपने बेहतर और उदार मूल्यांकन की अपेक्षा रखने वाले पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अब स्वयं इतिहास में विलीन हो चुके हैं, ये प्रश्न अपने पीछे छोड़कर कि भारतीय जनमानस और संसदीय राजनीति का समकालीन दौर उनका मूल्यांकन कैसे करेगा?
दिलचस्प पहलू ये है कि बीते दो दिनों से देश के तमाम प्रतिष्ठित अख़बार और खबरिया चैनल्स बतौर प्रधानमंत्री-अर्थशास्त्री उनकी सादगी, ईमानदारी, दूरदर्शिता, निर्भीकता और सहज मानवीय संवेदनाओं के किस्सों से भरे हैं। उनकी शान में कसीदे गढ़े जा रहे हैं।
बतौर प्रधानमंत्री अपनी आखिरी प्रेस वार्ता में जब डॉ. मनमोहन सिंह मजबूर या आहत होकर स्वयं के मूल्यांकन का फैसला समय पर छोड़ रहे थे, तब उन्होंने शायद ही सोचा होगा कि कभी मीडिया भी उनका ऐसा मूल्यांकन करेगा वो भी ठीक उस वक्त, जब वो इतिहास में विलीन हो रहे होंगे। लेकिन प्रश्न यह है कि एक अर्थशास्त्री से लेकर प्रधानमंत्री तक के 5 दशक के कार्यकाल में जिस व्यक्ति की शुचिता-सादगी और ईमानदारी पर एक दाग़ तक न हो। जिसका संपूर्ण कार्यकाल कई बड़े और ऐतिहासिक फैसलों से भरा रहा हो, उसे अपने अपने उदार मूल्यांकन का फैसला समय पर क्यों छोड़ना पड़ा? और वर्तमान उनके साथ कुछ हद तक निर्मम क्यों रहा? विचार करने पर इन तमाम सवालों का एक ही जवाब मिलता है और वो है उनकी अपनी पार्टी कांग्रेस। (कांग्रेस का अर्थ गांधी परिवार ही समझें) दरअसल गांधी परिवार ने मनमोहन सिंह को कमज़ोर और थका प्रधानमंत्री साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
सरकार से अधिक पार्टी के लिए जवाबदेह रहे मनमोहन!
वर्ष 2004 में जब सोनिया गांधी ने चौंकाने वाला फैसला लेते हुए मनमोहन सिंह के लिए प्रधानमंत्री की कुर्सी छोड़ी थी, तभी स्पष्ट हो चुका था कि वो एक कठपुतली प्रधानमंत्री से अधिक कुछ नहीं होंगे। प्रधानमंत्री आवास में भले ही मनमोहन सिंह रहते रहे हों, लेकिन सरकार 10 जनपथ और फिर 12 तुगलक लेन से ही चलती रही। उससे भी दुर्भाग्यपूर्ण ये था कि ‘परिवार’ गाहे-बगाहे पूरी बेशर्मी के साथ ये जताता भी रहा कि इस सरकार का रिमोट कंट्रोल उनके ही पास है और प्रधानमंत्री सरकार के प्रति कम पार्टी के प्रति अधिक जवाबदेह हैं।
वर्ष 2013 में राहुल गांधी के द्वारा अपनी ही सरकार के अध्यादेश को सार्वजनिक तौर पर फाड़ा जाना इसका सबसे निर्लज्ज उदाहरण था। योजना आयोग के उपाध्यक्ष रहे मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने खुद इस वाकये के बारे में अपनी किताब ‘बेकस्टेज : द स्टोरी बिहाइंड इंडियाज हाई ग्रोथ ईयर्स’ में लिखा है कि मनमोहन सिंह तब इस घटना से इतने आहत हुए थे कि उन्होने इस्तीफा देने तक का मन बना लिया था। क्या ये राहुल गांधी द्वारा मनमोहन सिंह और उनकी सरकार को नीचा दिखाने का कृत्य नहीं था? और मीडिया भला इसे और कैसे लेती? लेकिन ये सिर्फ एक उदाहरण था।
मनमोहन सिंह की दिक्कतें प्रधानमंत्री पद संभालते ही शुरू हो गई थीं। उनके कार्यालय के सीनियर ऑफिसर्स और महत्वपूर्ण पदों पर बैठे लोगों की निष्ठा सिंह से कहीं ज़्यादा सोनिया गांधी के प्रति थी। प्रधानमंत्री कार्यालय में सोनिया गांधी की दख़लंदाज़ी इस हद तक थी कि 2009 में सत्ता में वापसी के बाद उन्होंने मनमोहन सिंह से बिना पूछे ही प्रणब मुखर्जी को वित्त मंत्री का पद ऑफ़र कर दिया था जबकि वह ख़ुद सीवी रंगराजन को वित्त मंत्री बनाना चाहते थे।
मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार रह चुके संजय बारू अपनी किताब ‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ में लिखते हैं कि मनमोहन सिंह, एन.एन वोहरा को अपना प्रधान सचिव बनाना चाहते थे, लेकिन सोनिया गांधी के दख़ल के बाद टी.के.ए नायर को प्रधान सचिव बनाया गया। संयुक्त सचिव रहे पुलक चटर्जी को भी सोनिया गांधी के कहने पर ही प्रधानमंत्री कार्यालय में नियुक्ति दी गई और वो मनमोहन सिंह की जगह रोज़ाना सोनिया गांधी को रिपोर्ट करते थे, साथ ही उनसे दिशानिर्देश भी लेते थे।
मनमोहन सिंह के लिए खड़े भी नहीं होते थे उनके मंत्री
सिर्फ गांधी परिवार ही नहीं, ए.के एंटनी और अर्जुन सिंह जैसे नेता भी मनमोहन सिंह को ख़ास तवज्जो नहीं देते थे, जबकि वो उनके ही मंत्रिमंडल के सदस्य थे। बारू लिखते हैं कि अर्जुन सिंह तो मंत्रिमंडल की बैठकों या दूसरे सार्वजनिक अवसरों पर मनमोहन सिंह के आने पर खड़े तक नहीं होते थे। संजय बारू लिखते हैं कि सोनिया गांधी ने मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री ज़रूर बनाया था लेकिन उन्हें असली सत्ता कभी नहीं सौपी थी। बारू के अनुसार, सरकार पर सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली नैशनल एडवाइजरी काउंसिल यानी NAC का सीधा नियंत्रण था। मनरेगा, सूचना का अधिकार और सरकार के अन्य बेहतर कामों का श्रेय तो सोनिया गांधी लेती रहीं लेकिन ख़राब फैसलों और कार्यों का ठीकरा मनमोहन सिंह और उनकी सरकार पर फूटा।
जब न्यूक्लियर डील के लिए अड़े मनमोहन सिंह
संजय बारू मानते हैं कि मनमोहन सिंह से ग़लतियाँ तभी हुईं जब सोनिया गांधी और कांग्रेस ने उनके फ़ैसलों में ज़रूरत से ज़्यादा दख़ल देना शुरू कर दिया। जैसे मनमोहन सिंह ए राजा और टीआर बालू को अपने मंत्रिमंडल में नहीं लेना चाहते थे लेकिन पार्टी के दबाव में उन्हें दोनों को मंत्री बनाना पड़ा। कुछ फैसले ऐसे ज़रूर थे, जिनपर बतौर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अपनी छाप थी। जब अमेरिका और भारत न्यूक्लियर डील पर हस्ताक्षर करने जा रहे थे, तब सिर्फ CPIM और CPM जैसी पार्टियों ने ही इसका विरोध नहीं किया, बल्कि यूपीए अध्यक्ष रहीं सोनिया गांधी भी चाहती थीं कि इस समझौते को लेकर मनमोहन सिंह अपना मन बदल लें। हालांकि, मनमोहन सिंह किसी दबाव के आगे नहीं झुके, यहां तक कि कांग्रेस की एक बैठक में उन्होंने अपने इस्तीफे तक की धमकी दे डाली थी। नतीजा ये रहा कि लेफ्ट के समर्थन वापस लेने के बावजूद मनमोहन सिंह ना सिर्फ यह समझौता किया बल्कि सरकार बचाने में भी कामयाब रहे।
10 वर्षों के कार्यकाल में ये शायद ये पहला ऐसा बड़ा फैसला था, जिस पर उनकी अपनी छाप थी। परिणामस्वरूप आज भारत में 23 सक्रिय परमाणु ऊर्जा सयंत्र हैं, जिसने कुल 7,425 मेगावाट बिजली पैदा होती है। 2031 तक इसे क़रीब ढाई गुना तक बढ़ाने का लक्ष्य है। ज़ाहिर है आज अगर भारत न्यूक्लियर एनर्जी पैदा करने के मामले में दुनिया का 6 वां सबसे बड़ा देश है तो इसका श्रेय मनमोहन सिंह को भी जाता है, उनके उस इकलौते फैसले को, जो उन्होने किसी ‘रिमोट’ के ‘कंट्रोल’ में आए बिना लिया था। यकीनन इतिहास पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह का कहीं ज्यादा उदारता पूर्वक मूल्यांकन करेगा। शायद वर्तमान भी करता-अगर कांग्रेसियों (गांधी परिवार) ने उन्हें नीचा दिखाने का हर मुमकिन प्रयास न किया होता। अफ़सोस यह कि यह प्रयास उनकी अंतिम यात्रा के दिन भी जारी रहा।