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सांप्रदायिक दंगे: अचानक भड़की आग या लंबे समय तक सुलगाई गई चिंगारी?

दिल्ली में, हरियाणा के इलाकों में, राजस्थान में, होली पर झारखण्ड और बंगाल में, हर जगह डेमोग्राफी बदलने का नतीजा दिख रहा है

Anand Kumar द्वारा Anand Kumar
21 March 2025
in मत
सांप्रदायिक दंगे: अचानक भड़की आग या लंबे समय तक सुलगाई गई चिंगारी?
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आपको बताया जाता है कि किसी शहर-कस्बे में किसी इलाके में एक आकस्मिक दुर्घटना यानी दंगे हो गए। असलियत अब आपको भी अच्छी तरह पता है कि ये महीनों और कई बार तो वर्षों से किये योजनाबद्ध प्रयासों का नतीजा होता है। दिल्ली दंगों के बाद छतों पर मिले बोतल बम और बड़े पत्थर बरसाने लायक गुलेलें या कहिये शतघ्नियाँ को देखकर कुछ मासूम चौंके होंगे लेकिन कुछ इलाकों में छतों पर पत्थर इकठ्ठा किये जाते हैं। वर्षों के प्रयास से गलियाँ इतनी संकरी बनाई जाती हैं कि गाड़ियाँ घुस न सकें, पुलिस प्रशासन के लोग पैदल घुसें भी तो ऊपर से खटिया-कुर्सियाँ आदि गिराकर आसानी से अवरोध पैदा किये जा सकें।

हर शहर-कस्बे के थानों में जो मुहर्रम इत्यादि के समय अमन समिति की बैठकें होती हैं, उसमें कौन लोग होते हैं, ये जरा भी सामाजिक व्यक्ति को पता है। बांग्लादेशी घुसपैठियों को बसाने वाले, किराये पर मकान मुहैया करवाने वाले, नौकरी-काम मिलने में मदद करने वाले यही लोग नहीं होते क्या? सरकारी और कई बार तो निजी संपत्ति पर अवैध क़ब्ज़ा कर के इमारतों से झुग्गी तक बसा देने वाले यही लोग तो घुसपैठियों के मसीहा होते हैं। जब वही अमन कमिटी में मौजूद है, स्थानीय पुलिस को सद्भावना सप्ताह में गुलदस्ता और पुरस्कार देते हुए फ़ोटो खिंचवा के स्थानीय मीडिया में प्रकाशित कराता है, पुलिसकर्मी से करीबी के जरिये अपने गुर्गों को छुड़ा सकता है, तो उसकी मिलीभगत वाला दंगा अचानक कैसे हुआ?

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वर्षों की सुनियोजित योजना थी हर दंगा। ये बिलकुल लाइफस्टाइल डिजीज जैसा ही मामला है। ह्रदय रोग एक दिन में नहीं हो जाता, वर्षों के खान-पान, पर्याप्त शारीरिक श्रम न करना, तला-भुना भोजन, नींद आदि मिलकर वर्षों में शारीरिक स्थिति को इतना बिगड़ते हैं कि रक्तचाप, मधुमेह (डायबीटीज) जैसे रोग होने लगें। ये एक दिन अचानक नहीं हुआ होता। ऐसे समझ में न आये, हजम करने में दिक्कत हो रही हो तो एक बार मशहूर फिल्म ‘1947 अर्थ’ का अंतिम दृश्य याद कर लीजिये। आमिर खान जो किरदार निभा रहा होता है, उसने वर्षों में पारसी परिवार में जान-पहचान बनाई थी। बच्ची को वो वर्षों आइसक्रीम देता रहा था इसलिए बच्ची को उसपर भरोसा था। बच्ची को लगता है कि ये आइसक्रीम वाला भला आदमी उस हिन्दू स्त्री का कोई नुकसान नहीं करेगा, जिसे पारसी परिवार ने घर में छुपा रखा है। बच्ची बता देती है कि हिन्दू स्त्री घर में छुपी ही, आइसक्रीम वाले के ईशारे पर भीड़ घुसती है और उस स्त्री को उठा ले जाती है। वर्षों की तैयारी का नतीजा था जिसकी वजह से आइसक्रीम वाला बच्ची से पता उगलवा सकता था।

एक दिन में नहीं हुआ, अचानक हुआ मान रहे हैं तो अख़बारों और मीडिया के सेक्युलर ठगों की तरह स्वयं को और दूसरों को बहला भर रहे हैं। जिन जगहों पर दंगे होते हैं, वहाँ की डेमोग्राफी बदलना एक दिन का काम तो रहा नहीं होगा? रियल एस्टेट और जमीन के दामों के बारे में मामूली जानकारी रखने वाले लोग भी ये जानते हैं कि जिस गली में एक भी समुदाय विशेस का परिवार आ बसा, वहाँ प्रॉपर्टी के रेट ठहर जायेंगे। दो तीन ऐसे परिवार गली में आये तो कीमतें गिरनी शुरू हो जाएँगी। पहले एक परिवार आकर बसा, फिर दो, धीरे-धीरे करीब दो दशक में आबादी तीस प्रतिशत तक पहुंची और दंगे शुरू हुए हैं। जहाँ भी दंगों का इतिहास नहीं, ऐसी किसी भी जगह पर पिछले बीस वर्षों में ही आबादी बदली है, ये एक घोषित तथ्य है जिसे स्वीकारने में दिक्कत हो रही है।

उत्तराखंड के कई इलाकों में लोगों को ये दिख रहा है। हरिद्वार आदि में नजर आ रहा है। केदारनाथ से लेकर वैष्णो देवी के हिन्दू तीर्थों तक में आप देख सकते हैं कि जैसे ही रोप-वे बनवाने जैसा कोई विकास का कार्य शुरू होगा, अचानक एक भीड़ विरोध में उतर आएगी। इनके पास पुराने वामपंथी बहाने हैं जो गलत सिद्ध हो चुके हैं। वो कहेंगे रोप-वे से टट्टू वालों की नौकरी जाएगी और भीड़ विरोध में उतर आएगी। कहाँ से आई है ये भीड़, एक दिन में तो नहीं आई होगी इन हिन्दू तीर्थों पर? इस तरह की जो हिंसा होती है, दंगे होते हैं, उन्हें अक्सर सेक्युलर मीडिया ‘सांप्रदायिक हिंसा’ घोषित करती है। ये भी सच को छुपाने का ही एक तरीका है। मीडिया में वर्षों काम कर चुके किसी संपादक को शब्दों का सही अर्थ और प्रयोग पता नहीं हो, ऐसा संभव नहीं।

वो न्यूज़ एंकर को रिपोर्टर या रिपोर्टर को एडिटर तो नहीं कहते न? अब जरा संप्रदाय या कम्युनिटी जैसे शब्दों के बारे में सोचिये। हिन्दुओं में ही कोई कबीरपंथी हो, कोई शैव, वैष्णव या शाक्त हो, तब तो उन्हें अलग अलग संप्रदाय कहेंगे। उनके बीच लड़ाई हुई हो तो एक ही धर्म के दो सम्प्रदायों में हुई इसलिए सांप्रदायिक हिंसा हुई। कैथोलिक एक कम्युनिटी थी और प्रोटेस्टेंट दूसरी, एक ही रिलिजन की दो कम्युनिटीज में हुआ तब कम्युनल क्लैश कहलायेगा। जब दो अलग अलग धर्म-मझहब के लोगों में था तो कम्युनल कहाँ हुआ, रिलीजियस हुआ न? साम्प्रदायिक हिंसा या दंगे थे ही नही, वो मजहबी दंगे थे। आपको मजहब का नाम सुनाई ही न दे, आपकी आँख-कान पर पर्दा पड़ा रहे इसके लिए वर्षों से मजहबी दंगों को, साम्प्रदायिक दंगे बताया जा रहा है।

दशकों से जो चल रहा है उसको एक दिन अचानक हुई घटना कैसे मान लें? समाजशास्त्र में पढ़ाते हैं कि कोई समाज समाप्त हो रहा है, कोई समुदाय ख़त्म होने की ओर बढ़ रहा है, इसे पहचानने का एक बहुत सरल तरीका है। अगर उस समुदाय के पास, उस धार्मिक गुट के पास अपने समुदाय के इकठ्ठा होने के लिए सामुदायिक जगहें नहीं हैं, कोई सामुदायिक भवन नहीं है तो समझिये वो समुदाय समाप्ति की ओर अग्रसर है। अगर किसी के पास रविवार के मास में चर्च में, या जुम्मे की नमाज में मस्जिद में इकठ्ठा होने की जगह है तो उसे ठीक-ठाक स्वास्थ्य वाला समुदाय माना जा सकता है। इकठ्ठा होने का दिन निश्चित है, उस दिन छुट्टी या तो पहले ही है या देने के लिए सरकार-निजी संस्थाओं पर दबाव बनाया जाता है। मास या नमाज के नाम पर इकठ्ठा होने के लिए चर्च-मस्जिद जैसी जगह भी है। आपके पास ऐसे दिन, जगह हैं या नहीं, इसपर विचार कीजिये। दिल्ली में, हरियाणा के इलाकों में, राजस्थान में, होली पर झारखण्ड और बंगाल में, हर जगह डेमोग्राफी बदलने का नतीजा तो देख ही लिया है। वर्षों में होने वाले लाइफस्टाइल डिजीज से निपटने के लिए लाइफस्टाइल बदलना एकमात्र उपाय है, ये भी पता ही होगा?

स्रोत: दंगे, सांप्रदायिक हिंसा, दिल्ली दंगे, मजहबी कट्टरता, Riots, communal violence, Delhi riots, religious fanaticism,
Tags: communal violenceDelhi Riotsreligious fanaticismriotsदंगेदिल्ली दंगेमजहबी कट्टरतासांप्रदायिक हिंसा
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