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बिहार में मोदी का महासंकल्प: रोड शो से जन-जन तक ‘राष्ट्रवादी विकास यात्रा’

नरेंद्र मोदी का बिहार के साथ एक भावनात्मक और ऐतिहासिक रिश्ता भी रहा है। 2014 के लोकसभा चुनाव में जब उन्होंने सबका साथ, सबका विकास का मंत्र दिया, तो बिहार ने इसे सबसे पहले आत्मसात किया था।

Vibhuti Ranjan द्वारा Vibhuti Ranjan
29 October 2025
in चर्चित, बिहार डायरी, भारत, मत, राजनीति, समीक्षा
बिहार में मोदी का महासंकल्प: रोड शो से जन-जन तक ‘राष्ट्रवादी विकास यात्रा’

30 अक्टूबर और 2 नवम्बर के मोदी कार्यक्रम महज़ तारीखें नहीं, बल्कि राजनीतिक इतिहास के अध्याय हैं।

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बिहार की धरती एक बार फिर इतिहास लिखने की तैयारी में है। 30 अक्टूबर को मुजफ्फरपुर और छपरा, और 2 नवम्बर को पटना, यह सिर्फ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रैलियों और रोड शो की तिथियां नहीं हैं, बल्कि उस यात्रा के पड़ाव हैं जिसने पिछले एक दशक में भारत की राजनीति की दिशा ही बदल दी है। भाजपा के चुनावी रणनीतिकार इसे मिशन बिहार कह रहे हैं, लेकिन राष्ट्रवादी दृष्टि से देखें तो यह केवल एक चुनावी अभियान नहीं, बल्कि उस वैचारिक संघर्ष का विस्तार है जो विकास, स्थिरता और राष्ट्रीय एकता बनाम जातीय विभाजन, अराजकता और परंपरागत तुष्टिकरण की राजनीति के बीच चल रहा है।

नरेंद्र मोदी का बिहार के साथ एक भावनात्मक और ऐतिहासिक रिश्ता भी रहा है। 2014 के लोकसभा चुनाव में जब उन्होंने सबका साथ, सबका विकास का मंत्र दिया, तो बिहार ने इसे सबसे पहले आत्मसात किया था। उस समय देशभर में मोदी लहर थी, लेकिन बिहार में यह लहर एक जनांदोलन में बदल गई थी। अब 2025 के विधानसभा चुनाव में जब प्रधानमंत्री फिर से बिहार की जनता के बीच उतरने जा रहे हैं, तो यह यात्रा उस विश्वास की पुनर्पुष्टि है जो बिहार ने बार-बार केंद्र की राष्ट्रवादी नीतियों में दिखाया है।

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मुजफ्फरपुर और छपरा की धरती राजनीतिक रूप से प्रतीकात्मक है। छपरा वही इलाका है जिसने जयप्रकाश नारायण जैसे क्रांतिकारी विचारक को जन्म दिया, जिनकी सम्पूर्ण क्रांति ने भारतीय राजनीति को नया रास्ता दिखाया। मुजफ्फरपुर का इतिहास स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ा है, शहीद खुदीराम बोस की वीरता की गवाही देती यह धरती आज फिर से राष्ट्रवादी ऊर्जा से भरने जा रही है। जब प्रधानमंत्री मोदी इन जगहों से जनता को संबोधित करेंगे, तो यह केवल मतदाताओं से संवाद नहीं होगा, यह उन मूल्यों की पुनर्स्थापना होगी जिन्हें बिहार ने भारतीय लोकतंत्र को दिए सत्य, त्याग और परिवर्तन की चेतना।

प्रधानमंत्री ने दिये ये संकेत

एनडीए का ग्रैंड प्लान इस बार पहले से कहीं अधिक व्यापक और संगठित है। 24 अक्टूबर को समस्तीपुर से ‘मिशन बिहार’ का शुभारंभ करते हुए प्रधानमंत्री ने स्पष्ट संकेत दिया कि इस बार का चुनाव केवल सत्ता का नहीं, बल्कि नए भारत के बिहार निर्माण का होगा। उन्होंने अपने भाषण में न केवल कर्पूरी ठाकुर का उल्लेख किया, जो सामाजिक न्याय और ईमानदारी के प्रतीक माने जाते हैं, बल्कि बिहार के श्रम, संस्कृति और संघर्ष की परंपरा को भी राष्ट्रीय गौरव से जोड़ा। यही मोदी शैली की पहचान है, वे स्थानीय भावनाओं को राष्ट्रीय दृष्टि में समाहित कर देते हैं।

2 नवम्बर का पटना रोड शो इसी रणनीति का शिखर होगा। भाजपा ने इसे बिहार के सबसे बड़े जनसंपर्क आयोजन के रूप में तैयार किया है। पटना शहर की 14 विधानसभा सीटों को जोड़ते हुए यह रोड शो न केवल भौगोलिक रूप से राजधानी के हर कोने को स्पर्श करेगा, बल्कि प्रतीकात्मक रूप से बिहार की राजनीति के हर पहलू को भी छू लेगा। बांकीपुर, पटना साहिब, दीघा, कुम्हरार, मनेर, बिक्रम, बाढ़, बख्तियारपुर, मोकामा, फतुहां, फुलवारी, मसौढ़ी, दानापुर और पालीगंज, इन सभी क्षेत्रों की जनता मोदी को सीधे देखने और सुनने आएगी। सड़क किनारे उमड़ती भीड़ केवल भाजपा का प्रदर्शन नहीं होगी, बल्कि यह उस विश्वास की अभिव्यक्ति होगी जो बिहार ने राष्ट्रवादी विचारधारा में रखा है।

प्रधानमंत्री के रोड शो की तैयारियों में धर्मेंद्र प्रधान, दिलीप जायसवाल और संजय जायसवाल जैसे नेताओं की सक्रियता बताती है कि भाजपा इस चुनाव को किस स्तर पर ले जा रही है। भाजपा के अंदरूनी सूत्रों के अनुसार, इस बार रणनीति दोहरी है, एक ओर नरेंद्र मोदी और अमित शाह का राष्ट्रीय नेतृत्व जनता के सामने ‘विकास और राष्ट्र-हित’ की दृष्टि रखेगा, तो दूसरी ओर स्थानीय नेतृत्व बूथ स्तर पर जातीय गणित को तोड़ने का काम करेगा। इस अभियान की आत्मा मोदी की लोकप्रियता है, जो जाति से ऊपर उठकर व्यक्ति के रूप में भरोसे की राजनीति का प्रतीक बन चुकी है।

दरअसल, बिहार की राजनीति लंबे समय तक जातीय समीकरणों में बंधी रही है। लालू-राबड़ी के दौर में राजनीति का अर्थ था, जाति आधारित गोलबंदी और वोट बैंक का संतुलन। विकास, निवेश या शासन की गुणवत्ता जैसे शब्द तब केवल भाषणों तक ही सीमित थे। लेकिन 2005 के बाद जब नीतीश कुमार ने भाजपा के सहयोग से शासन का पहिया संभाला, तो बिहार ने पहली बार देखा कि कानून-व्यवस्था भी चुनावी मुद्दा हो सकती है। सड़क, बिजली, स्कूल, अस्पताल इन शब्दों को बिहार के राजनीतिक विमर्श में पहली बार स्थायी स्थान मिला। नरेंद्र मोदी की 2014 की लहर ने इस प्रवृत्ति को और मजबूत किया। अब बिहार के मतदाता जातीय समीकरणों से आगे बढ़कर शासन की स्थिरता और राष्ट्र के विकास से अपनी आकांक्षाएं जोड़ने लगे हैं।

यही वजह है कि एनडीए की रणनीति इस बार केवल सीट जीतने की नहीं, बल्कि बिहार की मानसिकता बदलने की है। मोदी और शाह का यह रोड शो, जनसभाएं और लगातार संवाद यही संकेत दे रहे हैं कि भाजपा बिहार को विकास और गौरव के द्वार पर खड़ा देखना चाहती है। बिहार में आज भी पलायन, बेरोजगारी और उद्योगों की कमी सबसे बड़ी चुनौतियां हैं, लेकिन नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र सरकार ने जो योजनाएं चलाईं, प्रधानमंत्री आवास योजना, उज्ज्वला योजना, जल जीवन मिशन, डिजिटल इंडिया। उनका प्रभाव सबसे अधिक बिहार के गांवों में दिखता है। यही कारण है कि आज बिहार की हर पंचायत में मोदी सरकार की योजनाओं के लाभार्थी हैं। मोदी का रोड शो केवल भीड़ नहीं जुटाएगा, वह उन करोड़ों परिवारों की उपस्थिति का प्रतीक होगा जिन्हें पिछले दस वर्षों में पहली बार शासन से सीधा लाभ मिला।

राष्ट्रवादी दृष्टि से यह भी उल्लेखनीय है कि नरेंद्र मोदी के प्रचार अभियान का केंद्र संस्कृति और राष्ट्रभावना भी है। हाल ही में ‘मन की बात’ के 127वें एपिसोड में उन्होंने बिहार के लोकपर्व ‘छठ’ का उल्लेख किया और इसे प्रकृति, संस्कृति और एकता का प्रतीक बताया। यह कोई साधारण उल्लेख नहीं था। मोदी का यह प्रयास है कि बिहार की सांस्कृतिक आत्मा को राष्ट्रीय चेतना में जोड़ा जाए। यही वह दृष्टिकोण है जो कांग्रेस और समाजवादी राजनीति कभी नहीं अपना सकी। छठ पर्व में जब गांव-गांव के घाटों पर महिलाएं सूर्य की उपासना करती हैं, तो वह आस्था केवल धार्मिक नहीं होती, वह पर्यावरण, समाज और राष्ट्र के प्रति निष्ठा का प्रतीक बन जाती है। मोदी इसी भाव को अपने अभियान में जोड़ रहे हैं। एक ऐसी राष्ट्रनीति जिसमें परंपरा और आधुनिकता दोनों साथ चलें।

बिहार चुनावों में एनडीए की रणनीति यह भी स्पष्ट कर रही है कि वह अब रक्षात्मक नहीं, बल्कि आक्रामक मुद्रा में है। भाजपा यह चुनाव केवल जीतने के लिए नहीं, बल्कि विपक्ष के नैरेटिव को तोड़ने के लिए लड़ रही है। तेजस्वी यादव जैसे नेता बार-बार मोदी और शाह के नाम पर निजी हमले करते हैं, प्रशासनिक संस्थाओं पर आरोप लगाते हैं और खुद को गरीबों की आवाज़ बताकर पुराने ‘जंगलराज’ को वैचारिक रूप से वैध ठहराने की कोशिश करते हैं। लेकिन मोदी का रोड शो और उनके भाषण इस नैरेटिव को सीधी चुनौती देंगे। वे बिहार की जनता को यह याद दिलाएंगे कि सत्ता में आने का अर्थ भय का राज नहीं, बल्कि विकास का वचन है।

एनडीए की यह तैयारी इसलिए भी विशेष है क्योंकि भाजपा अब केवल सहयोगी दल पर निर्भर नहीं रहना चाहती। जेडीयू के साथ तालमेल जारी रहते हुए भी भाजपा अपना संगठनात्मक ढांचा इतना मजबूत कर रही है कि भविष्य में किसी राजनीतिक अस्थिरता की स्थिति में वह अकेले चुनावी समर संभाल सके। बिहार में भाजपा का कैडर इस समय अभूतपूर्व सक्रियता में है। बूथ स्तर पर 12 लाख से अधिक कार्यकर्ता सक्रिय बताए जा रहे हैं। सोशल मीडिया टीम ने मिशन बिहार 2025 नाम से एक डिजिटल अभियान शुरू किया है, जिसका उद्देश्य हर युवा मतदाता तक मोदी सरकार की उपलब्धियों को पहुंचाना है।

राष्ट्रवादी दृष्टिकोण से देखें तो यह पूरा अभियान केवल चुनावी गणित नहीं, बल्कि राजनीतिक संस्कृति के पुनर्निर्माण की प्रक्रिया है। मोदी का बिहार में बार-बार जाना यह दर्शाता है कि केंद्र सरकार बिहार को केवल एक राज्य नहीं, बल्कि राष्ट्रीय विकास की धुरी मानती है। गंगा की यही धरती उत्तर भारत की आर्थिक और सांस्कृतिक रीढ़ है। यदि बिहार में राजनीतिक स्थिरता और सुशासन कायम रहता है, तो उसका प्रभाव पूरे पूर्वी भारत में पड़ेगा, झारखंड, बंगाल और उत्तर प्रदेश तक।

प्रधानमंत्री का रोड शो इस अर्थ में विकास यात्रा भी है। यह उन गांवों, कस्बों और शहरों को जोड़ने की प्रतीक यात्रा है जो वर्षों तक सत्ता से कटे रहे। पटना की गलियां, दीघा की सड़कें, बख्तियारपुर और फुलवारी जैसे इलाकों में यह रोड शो सिर्फ दृश्य नहीं होगा, बल्कि यह जनता के भीतर आत्मविश्वास की पुनर्स्थापना का क्षण होगा। जब प्रधानमंत्री स्वयं सड़क पर उतरकर जनता के बीच चलते हैं, तो वह केवल नेता नहीं, राष्ट्र की आत्मा के वाहक बन जाते हैं।

इस बार भाजपा और एनडीए का लक्ष्य स्पष्ट है, 20 वर्षों का रिकॉर्ड तोड़ बहुमत। अमित शाह और जेपी नड्डा इसे विकास और राष्ट्रीय सुरक्षा का जनादेश कह रहे हैं। नरेंद्र मोदी के भाषणों में भी अब यही स्थायी भाव है कि बिहार को अब स्थिरता चाहिए, राजनीति की परिपक्वता चाहिए, न कि जातीय समीकरणों और भीड़-उन्माद की वापसी। जब वे मंच से कहते हैं कि बिहार के युवा अब नौकरी के लिए पलायन नहीं, नवाचार के लिए जाने चाहिए, तो यह केवल चुनावी वादा नहीं, बल्कि एक दृष्टि का वक्तव्य होता है।

राज्य और राष्ट्र का हित एक-दूसरे से अलग नहीं हैं। बिहार में मोदी का यह अभियान इस विचार को मूर्त रूप देता है। यहां विकास का मुद्दा केवल सड़क, बिजली या पानी तक सीमित नहीं, बल्कि आत्म-सम्मान से जुड़ा है। वह सम्मान जो बिहार ने खोया था और जिसे मोदी शासन में पुनः प्राप्त किया है। आज जब बिहार की माताएं अपने बच्चों को उज्ज्वला योजना के सिलेंडर से खाना बनाते देखती हैं, जब किसान प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि की किस्त सीधे खाते में पाते हैं, जब युवा डिजिटल इंडिया की मदद से स्टार्टअप बना रहे हैं तो यह सब किसी घोषणा-पत्र का हिस्सा नहीं, बल्कि राष्ट्रवादी शासन का जीवंत उदाहरण है।

इसलिए, 30 अक्टूबर और 2 नवम्बर के मोदी कार्यक्रम महज़ तारीखें नहीं, बल्कि राजनीतिक इतिहास के अध्याय हैं। बिहार की जनता एक बार फिर यह तय करेगी कि वह भविष्य किस दिशा में देखना चाहती है विकास, राष्ट्रवाद और स्थिरता की ओर या अराजकता, धमकी और जातीय विखंडन की ओर। नरेंद्र मोदी का यह रोड शो उसी प्रश्न का उत्तर लेकर निकलेगा।

बिहार की धरती जब एक बार फिर प्रधानमंत्री का स्वागत करेगी, तो यह केवल चुनावी जयकारा नहीं होगा, यह उस राष्ट्रीय संकल्प की पुनर्पुष्टि होगी जो भारत को आत्मनिर्भरता और एकता की दिशा में ले जा रहा है। यह संकल्प है विकास ही राष्ट्रधर्म है। मोदी का बिहार अभियान इसी राष्ट्रधर्म की यात्रा है, जिसमें हर कदम पर यह संदेश गूंजता है कि भारत बदल रहा है, बिहार अब पीछे नहीं रहेगा।

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