जब भी पाकिस्तान की बात आती है, द्विराष्ट्र सिद्धांत का मुद्दा भी सामने आता है। इस सिद्धांत को जन्म देने वाले सर सैयद अहमद खान के साथ कुछ ऐसे नेताओं का भी नाम आता है, जिन्होंने उनके इस सपने को साकार करने के लिए जमीन आसमान एक कर दिया था। इन्हीं नेताओं में आगा खान III का नाम भी शामिल हैं। आज हम उन्हीं आगा खान के विषय में जानेंगे, जिन्होंने सैयद अहमद खान के द्विराष्ट्र के सिद्धांत को साकार करने और कांग्रेस पार्टी को मुस्लिमों का विश्वास जीतने के लिए प्रेरित किया। सर सुल्तान मुहम्मद शाह आगा खान III (1877-1957) का जन्म 2 नवंबर, 1877 को कराची में हुआ था, वह बॉम्बे (मुंबई) में पले-बढ़े। उन्होंने ईटन और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त की। सर सुल्तान मोहम्मद शाह आठ साल की छोटी उम्र में ही शिया इस्माइली मुसलमानों के 48वें इमाम बने।
आगा खान की राजनीतिक जीवन की शुरुआत भी 25 वर्ष के छोटी उम्र में हुई थी, जब उन्हें Imperial Legislative Council of India का सदस्य बना दिया गया था। जब उनकी जीवन यात्रा आरंभ हुई, तभी से वह पाकिस्तानी विचारधारा के प्रमुख व्यक्तित्व सर सैयद अहमद खान से प्रेरित थे। उस दौरान आगा खान ने पाया कि कई दिग्गजों की उपस्थिति के बावजूद मुसलमानों के प्रति कांग्रेस का रवैया निराशाजनक था। ऐसे ही लोगों में फिरोजशाह मेहता, जो कांग्रेस पार्टी के सलाहकारों में उच्च थे, वो भी आगा खान के पारिवारिक मित्र थे। वास्तव में, उन्होंने मेहता को अपने प्रभाव का इस्तेमाल करने और कांग्रेस को यह एहसास दिलाने के लिए प्रेरित किया कि मुस्लिमों का विश्वास जीतना कितना महत्वपूर्ण है। अर्थात आगा खान उसी दौरान से कांग्रेस को अपनी विचारधारा के सामने झुकने पर प्रेरित करना चाहते थे।
आगा खान ने सैयद अहमद खान की तरह ही भारतीय राष्ट्रीय पहचान पर अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय को प्राथमिकता दी। सन् 1906 में उन्होंने भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यकों के हितों को बढ़ावा देने के लिए ब्रिटिश वायसराय लॉर्ड मिंटो के मुस्लिम प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व किया। तब आगा खान III ने 35 प्रमुख भारतीय मुस्लिम नेताओं की एक सभा का नेतृत्व किया था, जिसका उद्देश्य भारत के तत्कालीन वायसराय लॉर्ड मिंटो को मुसलमानों को राजनीति में अधिक प्रतिनिधित्व देने के लिए राजी करना था। इसी प्रतिनिधिमंडल को Simla Deputation के नाम से भी जाना जाता है। यह 1909 के मॉर्ले-मिंटो सुधार ही थे, जिसने पाकिस्तान की नींव रखी और अलग मुस्लिम निर्वाचन क्षेत्रों का प्रावधान किया।
और पढ़े: द्विराष्ट्र सिद्धांत के ‘जनक’ सैयद अहमद खान हैं
मुस्लिम लीग की स्थापना
आगा खान को दृढ़ विश्वास था कि मुसलमानों ने अगर अलग निर्वाचक मंडल की मान्यता प्राप्त कर ली, तो उस अलग प्रतिनिधित्व को प्रभावी बनाने के लिए उनके पास एक राजनीतिक संगठन भी होना चाहिए। जल्द ही, वह कुछ मुस्लिम नेताओं को प्रभावित करने में सक्षम हो गए, जिसमें पहले Simla Deputation से जुड़े कुछ नेता भी शामिल थे। ये सभी नेता Muhammadan Educational Conference के वार्षिक सत्र के समापन के बाद 30 दिसंबर, 1906 को ढाका में मिले और एक मुस्लिम राजनीतिक दल की नींव रखी। उस बैठक की अध्यक्षता Nawab Viqarul Mulk ने की थी और इसमें भारत के विभिन्न हिस्सों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया, जो भूमि, वाणिज्यिक और पेशेवर वर्गों और समूहों का प्रतिनिधित्व करते थे। जिसके परिणामस्वरूप अखिल भारतीय मुस्लिम लीग की स्थापना हुई।
आगा खान के प्रभाव को देखते हुए, उन्हें सन् 1906 में ऑल इंडियन मुस्लिम लीग का अध्यक्ष बनाया गया। सन् 1912 तक वो मुस्लिम लीग के अध्यक्ष बने रहे। यह वही एक राजनीतिक दल था, जिसने भारत के उत्तर पश्चिम क्षेत्रों में एक स्वतंत्र मुस्लिम राष्ट्र के निर्माण के लिए एजेंडा को आगे बढ़ाया, फिर ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के बाद 1947 में पाकिस्तान देश की स्थापना की।
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी इन्हीं की देन है
हालांकि, 1912 के बाद आगा खान धीर-धीरे लीग की राजनीति से किनारे हो गए, लेकिन उन्होंने अपनी पाकिस्तानी विचारधारा को बढ़ाने के लिए अन्य कामों पर ध्यान दिया, इसी विचारधारा की नई पौधों को सींचने के लिए उन्होंने शैक्षणिक संस्थान की शुरुआत की। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी उन्हीं की देन है। उन्होंने अलीगढ़ में मुस्लिम कॉलेज को विश्वविद्यालय का दर्जा देने के लिए फंड की शुरुआत की, जो सन् 1920 में प्रभावी हुआ।
आगा खान, सर सैय्यद अहमद खान के उन विचारों से बहुत प्रभावित थे, जिसमें उन्होंने कहा था, “मुझे विश्वास है कि हिंदू और मुसलमान कभी भी मिलकर एक राष्ट्र नहीं बना सकते, क्योंकि उनका धर्म और जीवन जीने का तरीका एक दूसरे से काफी अलग है।” उन्होंने विश्वविद्यालय के लिए स्वयं 100,000 रुपये का योगदान दिया और 1911 में विश्वविद्यालय के लिए 30 लाख रुपये स्वयं जुटाये। वे “भारत में इस्लाम के योग्य एक शक्तिशाली विश्वविद्यालय का निर्माण करना चाहते थे।” ये वही अलीगढ़ विश्वविद्यालय है, जिसके छात्र, पाकिस्तान के अतीत और वर्तमान थे, जिसे मोहम्मद अली जिन्ना ने “पाकिस्तान का शस्त्रागार” के रूप में वर्णित किया था। सन् 1921 में उन्हें अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का कुलपति नियुक्त किया गया, सन् 1928-29 तक वो मुस्लिम कांफ्रेंस के सभी दलों के अध्यक्ष भी रहें।
उस दौरान एक घटना घटित हुई और वह था खिलाफत आंदोलन। अलग निर्वाचन और मुस्लिम लीग की स्थापना के बाद पाकिस्तान के निर्माण में खिलाफत आंदोलन ने ही सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। खिलाफत आंदोलन के दौरान आगा खान III ने अंतरराष्ट्रीय मंचों पर इस मुद्दे को उजागर करके खिलाफत बचाने के लिए लड़ाई लड़ी। उन्होंने व्यक्तिगत रूप से द टाइम्स ऑफ लंदन को खलीफा के पक्ष में अभियान चलाने के लिए पत्र भेजे। आगा खान ने उस दौरान तुर्की की संप्रभुता के लिए अपनी सहानुभूति का प्रदर्शन किया और तुर्की के युद्ध ऋण को £2,000 से पूरा करने में योगदान भी दिया।
और पढ़े: धर्मनिरपेक्षता का प्रतीक या फिर जिहाद का समर्थक? मौलाना आज़ाद का वास्तविक चेहरा
आगा खान देश के बंटवारे के लिए जिम्मेदार
सन् 1930-33 तक गोलमेज सम्मेलन में वो ब्रिटिश भारतीय प्रतिनिधिमंडल के अध्यक्ष थे, सन् 1934 में वो प्रिवी काउंसिल के सदस्य भी थे। वह पहले एशियाई थे, जिन्हें 1937 में लीग नेशन के अध्यक्ष के रूप में चुना गया था। 15 दिसंबर, 1932 को लंदन में नेशनल लीग के सदस्यों की एक बैठक हुई, जहां कवि अल्लामा इकबाल ने आगा खान III की के संबंध में टिप्पणी की थी। उन्होंने कहा था कि, “हमने इन मांगों को सम्मेलन के समक्ष रखा है। सर सुल्तान मोहम्मद शाह आगा खान III एक ऐसे राजनेता हैं, जिनकी हम सभी प्रशंसा करते हैं और जिन्हें भारत के मुसलमान रोम-रोम से प्यार करता है।” आप इसी से समझ सकते हैं कि उस दौरान आगा खान की क्या हैसियत रही होगी। आज भारत अगर पाकिस्तान की समस्या से जूझ रहा है, उसमें आगा खान का सबसे महत्वपूर्ण योगदान है। उन्होंने न सिर्फ पाकिस्तानी विचारधारा की नींव को तैयार किया, बल्कि उसे सिंचने के लिए अलीगढ़ विश्वविद्यालय का निर्माण भी करवाया। उसी विचारधारा के बल पर जिन्ना जैसे लोगों ने देश में दंगे कराये और एक नए देश के सपने को वास्तविकता में बदला तथा देश का बंटवारा कराया।