संबंध और व्यापार दोनों व्यवहार पर बनते और बिगड़ते हैं। चीन और भारत के निजी और व्यापारिक दोनों संबंध रोलर कोस्टर की भांति कभी बहुत ऊंची उड़ान के साथ उड़ें तो कभी धड़ाम से नीचे गिरे। यूं तो चीन सदा से भारत को दबाव में रखने का आदी रहा है, नेहरू शासन से लेकर यूपीए शासन के दौरान उसे इसके लिए विशेष छूट भी मिल जाती थी पर अब यह कर पाना उसके लिए टेढ़ी खीर साबित हो रहा है। ऐसे में गलवान घाटी में हुए विवाद के बाद से ही भारत के रुख ने चीन को पुनर्विचार करने पर मजबूर कर दिया है। अब चीन यह समझ चुका है कि बिना दबाव और तुर्रम खान बने भारत से वार्ता करने में ही समझदारी है वरना भारत के लिए न तो चीन के आने की ख़ुशी है और न जाने का गम!
दरअसल, गलवान घटना के 2 वर्ष बाद चीन ने भारत से “शांतिपूर्ण” संवाद की मांग की है। चीनी रक्षा मंत्री जनरल वेई फेंघे ने रविवार को कहा कि “चीन और भारत पड़ोसी हैं और अच्छे संबंध बनाए रखना दोनों देशों के हितों को पूरा करता है। दोनों देश वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर शांति के लिए मिलकर काम कर रहे हैं।” शांगरी-ला डायलॉग को संबोधित करते हुए वेई ने दक्षिण चीन सागर सहित क्षेत्रीय विवादों को सुलझाने के लिए शांतिपूर्ण तरीकों का भी आह्वान किया।
यह आश्चर्यजनक नहीं है क्योंकि भारत के सख्त रुख और तटस्थ कूटनीति से इसकी पूरी संभावनाएं थी कि चीन अवश्य नरम रुख दिखायेगा और चीन के रक्षा मंत्री जनरल वेई फेंघे के बयान ने इसकी पुष्टि भी कर दी है। ध्यान देने वाली बात है कि इसमें सबसे बड़ा हाथ भारत के #QuitChina जैसे प्रकल्पों का है जिसके तहत भारतीयों के दिल में एक साथ ‘राष्ट्र और देश के जवान प्रथम’ की ऊष्मित ऊर्जा आई और एक के बाद एक चीनी उत्पाद और एप्स को भारत से बाहर कर उन्हें बैन कर दिया गया। भारत ने जता दिया कि न वो कभी चीन पर आश्रित था और न ही रहेगा। आत्मनिर्भरता के मंत्र के साथ भारत ने धीरे-धीरे हर उस चीज़ का निर्माण किया जिसका सृजन अब तक वो चीन से करता था।
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चीन को लगे कई बड़े झटके
इसके बाद चीन के हृदय परिवर्तन का दूसरा सबसे अहम मोड़ तब आया जबसे रूस-यूक्रेन युद्ध शुरू हुआ और इसबार भारत के प्रभाव ने वैश्विक स्तर पर क्या विकासशील और क्या विकसित देश, देश के तटस्थ रूख ने सभी को सोंचने पर मजबूर कर दिया। कथित महाशक्तियों समेत दुनिया के तमाम बड़े देश भारत की ओर आशन्वित होकर यह आशा करने लगे कि भारत किसी भी तरह मध्यस्तता करा दे। इसका अर्थ है कि क्या अमेरिका और क्या अन्य देश सभी के दिमाग में यही था कि यदि कोई समझौता करा सकता है तो वो भारत ही है। यह बहुत बड़ी बात है कि ऐसे समय में महाशक्तियां अपने हाथ खड़े कर भारत के कदमों में मध्यस्थता के लिए पड़ी रही।
चीन को एक और झटका तब लगा जब भारत एकतरफा रूस के साथ खड़ा भी रहा और अमेरिका से उसके संबंध जस के तस रहे। अमेरिका के प्रस्ताव पर अनुपस्थित रहकर भारत ने अमेरिका से कोई बैर वाली स्थिति उत्पन्न नहीं की। यह चीन के लिए चौंकाने वाली बात थी कि रूस के साथ होने के बावजूद भारत अमेरिका का साथी बना रहा, कोई विरोधाभास नहीं हुआ। दोनों बढ़ चढ़कर अपनी साझेदारी को दिन-प्रतिदिन मजबूत करते जा रहे हैं। अमेरिकी सेना के एक शीर्ष अधिकारी ने बुधवार को कहा कि भारतीय और अमेरिकी सेना के 9,000 जवान इस साल उच्च ऊंचाई वाले युद्ध के लिए क्रियाशीलता बढ़ाने हेतु 10,000 फीट पर एक साथ प्रशिक्षण लेंगे।
यानी भारत यहां भी अमेरिका के साथ सैन्य अभ्यास कर अमेरिकी फौजियों को ट्रेनिंग देने जा रहा है, ऐसे में दोनों के बीच दरार की आशंका भी अब हवा हो चुकी है। चीनी आक्रमण का मुकाबला करने के लिए भारत आसपास के क्षेत्र में बुनियादी ढांचे को भी बढ़ा रहा है। उच्च ऊंचाई वाले सैन्य अभ्यास में अमेरिकी सैनिकों को शामिल करने के हमारे हालिया फैसले ने चीनी प्रशासन को एक और झटका दिया है। पीएम मोदी की कूटनीति ने चीन को रणनीतिक गुमनामी में भेज दिया है। चीन को एक देश की रूप में कोई सहयोगी नहीं मिल रहा है। वास्तव में, यहां तक कि द्वीप राष्ट्र भी इसके कथित आधिपत्य को स्वीकार करने से इनकार कर रहे हैं।
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चीन को परेशान कर रही है भारत की मजबूती
इसके साथ ही अमेरिका और भारत की सहभागिता वाले QUAD देशों के हालिया समझौते में भी ऑस्ट्रेलिया, भारत, अमेरिका और जापान के बीच मैत्री की नई गांठ बंधी और चतुर्भुज सुरक्षा संवाद, या क्वाड (Quadrilateral Security Dialogue or QUAD) के सदस्यों के बीच समन्वय बढ़ा और सुदृढ़ हुआ। भारत-प्रशांत महसागर में शांति, समृद्धि और स्थिरता सुनिश्चित करना इस QUAD समूह का एक रचनात्मक एजेंडा है, जो “अच्छे के लिए स्थापित बल” के रूप में अपनी छवि को मजबूत करता है। भारत ने शी जिनपिंग प्रशासन के खिलाफ एक चौतरफे कूटनीतिक खेल का नेतृत्व किया। ASEAN और एक्ट ईस्ट पॉलिसी को मजबूत करके भारत ने दक्षिण चीन सागर के आसपास के देशों को अपने पक्ष में कर लिया। वियतनाम के साथ हाल ही में हस्ताक्षरित रक्षा समझौते के माध्यम से भारत की मिसाइलें मुख्य भूमि चीन के 400 किमी के भीतर हैं। इसी तरह, फिलिपिंस को ब्रह्मोस की आपूर्ति करने के भारत के फैसले ने चीन को और ज्यादा परेशान किया।
इन सभी बिंदुओं को विगतवार देखें तो पता चलता है कि कैसे भारत और पीएम मोदी के नेतृत्व ने चीन को अन्तोत्गत्वा घुटने पर लाने पर विवश कर दिया। वरना यह वही चीन है जो पीठ पर खंजर घोपने के बाद याचना कर पुनः उसी गुनाह को दोहराता रहता था। यह हर मोर्चे पर भारत के चीन को #GO_BACK कहने का नतीजा ही है जो आज उसके शासन-सत्ता के प्रमुख प्रतिनिधि, एक रक्षा मंत्री के मुंह से सकारात्मक और अच्छे संबंध जैसे कुष्मित पुष्पों की वर्षा हो रही है। चलिए यह डर भी अच्छा है, पर भारत सावधानी में अब कोई कमी नहीं छोड़ेगा, क्योंकि चीन का पिछला रिकॉर्ड माफ़ी के बाद भी घात करने का रहा है। ऐसे में भारत अब “दूध का जला भी छाछ को फूंक-फूंक के पीता है” की तरह ही धीरे-धीरे निर्णयों तक पहुंचेगा जो कि आवश्यक ही नहीं अतिआवश्यक है।
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