कहते हैं कि शिक्षा सशक्तिकरण का सबसे बड़ा अस्त्र है। किंतु, जरा सोचिए कि क्या हो अगर शिक्षा के प्रति हमारी प्रतिबद्धता और प्रेम की आड़ में समाज का एक वर्ग राष्ट्र निर्माण की जगह राष्ट्र के विखंडन हेतु इसका प्रयोग करने लगे? राष्ट्र के सशक्तिकरण, सेवा और सद्भाव की जगह विध्वंस, प्रतिशोध और धार्मिक उन्माद को बढ़ावा देने लगे, सहिष्णुता की जगह प्रतिशोध का पाठ पढ़ाने लगे। आप मानें या न मानें, किंतु अल्पसंख्यक समाज द्वारा संचालित मदरसों और विश्वविद्यालय केंद्रों की स्थिति आज यही है। इसका एक उदाहरण हमें नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी के समय देखने को मिला, जब ये अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थान राष्ट्र के सशक्तिकरण की जगह उसके वर्गीकरण का प्रयास करने लगे। भारत तेरे टुकड़े होंगे…इंशाल्लाह, इंशाल्लाह के नारे लगने लगे।
शिक्षण संस्थानों के परिसरों में पठन-पाठन की जगह हिंदुत्व की कब्र खोदे जाने की बात कही जाने लगी। भारत के स्वतंत्रता संग्राम के गौरवशाली इतिहास पर बात करने की जगह भारत से ही आजादी की मांग उठने लगी। किताब की जगह हिजाब अपनाने को गर्व के रूप में प्रस्तुत किया गया। विदेशों द्वारा राष्ट्र विरोधी भावनाओं को भड़काने के लिए आर्थिक संसाधन मुहैया कराए जाने लगे। तब मोदी सरकार ने कहा- बस, बहुत हुआ। JNU, DU और जाधवपुर जैसे वामपंथी गढ़ में लाल सलाम करनेवाले लोगों को तिरंगा को सैल्यूट मारना सिखाया।
योगी जी ने तो एक कदम आगे बढ़ते हुए सभी मदरसों में राष्ट्रगान अनिवार्य कर दिया। अब इन वामपंथी गढ़ों की अक्ल तो धीरे-धीरे ठिकाने आ रही है, लेकिन कुछ अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थान अभी भी शरारत करने से बाज नहीं आ रहे हैं। लेकिन अब मोदी सरकार मुस्लिम शिक्षण संस्थानों में व्याप्त राष्ट्रविरोधी तत्वों को बाहर निकालने का काम कर रही है। इस संस्करण में हम मदरसों की जगह उच्च शिक्षण संस्थान और मुख्य रूप से विश्वविद्यालयों की बात करेंगे।
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AMU के कुलपति जा सकते हैं राज्यसभा
दरअसल, मोदी सरकार मुस्लिम शिक्षण संस्थानों में व्याप्त राष्ट्रविरोधी तत्वों को बाहर निकालने के लिए साम, दाम, दंड, भेद सभी का प्रयोग कर रही है और ऐसा करना भी चाहिए, क्योंकि अगर इन शिक्षण संस्थानों में ऐसी विषैली मानसिकता पनपती रही, तो हो सकता है कि आनेवाले समय में इंडियन मुजाहिदीन की एक नयी शाखा तैयार हो जाएगी और राजनीतिक दल उनके राष्ट्रविरोधी कार्यों को ‘एक छात्र की गलती’ बताकर बचाते रहेंगे। सबसे पहले अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय का उदहारण लेते हैं। इस संस्थान को सही करने के लिए पहले मोदी सरकार ने साम अर्थात् प्रेम का मार्ग चुना। राजनीतिक हलकों में खबर है कि वहां के कुलपति प्रो तारिक मंसूर को भाजपा राज्यसभा भेज सकती है।
प्रो तारिक मंसूर पहले जवाहरलाल नेहरू मेडिकल कॉलेज और अस्पताल के प्रिंसिपल थे, जो पश्चिमी यूपी में सबसे बड़ा शिक्षण और तृतीय सबसे बड़ा चिकित्सा केंद्र है। उन्होंने AMU में सर्जरी विभाग के प्रमुख के रूप में भी काम किया है। उनके पास लगभग चार दशकों का शिक्षण, अनुसंधान, नैदानिक और प्रशासनिक अनुभव है और उनके पास 93 प्रकाशन हैं और 58 स्नातकोत्तर मेडिकल छात्रों की थीसिस की देखरेख भी करते हैं। उनको राज्यसभा में भेजना न सिर्फ अन्य मुस्लिमों को प्रेरित करेगा, बल्कि सरकार में उनका विश्वास भी बढेगा। यह एक उदहारण पेश करेगा कि अगर आप राष्ट्र सेवा के निमित्त उद्दत हैं तो आपको प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा सब मिलेगा, लेकिन ऐसा नहीं है कि सरकार उनका विश्वास पाने के चक्कर में मुस्लिम तुष्टीकरण पर उतर गयी है।
अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थान नहीं बनेंगे राजनीति का अड्डा
6 अप्रैल 2022 को अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (AMU) ने अपने जवाहरलाल नेहरू मेडिकल कॉलेज और अस्पताल (JNMCH) में फॉरेंसिक साइंस के सहायक प्रोफेसर जितेंद्र कुमार को MBBS छात्रों को पावरपॉइंट प्रेजेंटेशन के दौरान हिंदू देवी-देवताओं के लिए अपमानजनक टिप्पणी करने हेतु निलंबित कर दिया। इतना ही नहीं, विश्वविद्यालय प्रबंधन ने पिछले दिनों एक प्रोफेसर को खुले ने नमाज़ पढ़ने के कारण उसकी छुट्टी कर दी। इसका अर्थ यह है कि सरकार मुस्लिम शिक्षण संस्थानों को धर्म प्रसार और राजनीति का अड्डा बनने से सख्ती से रोक रही हैं।
इसी परिवर्तन को आगे बढ़ते हुए केंद्रीय सामाजिक न्याय मंत्री थावर चंद गहलोत ने ‘द वायर’ को दिए एक साक्षात्कार में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (AMU) और जामिया मिलिया इस्लामिया (JMI) जैसे केंद्रीय विश्वविद्यालयों के अल्पसंख्यक चरित्र से इनकार किया। उनका कहना है कि ये संस्थान किसी अल्पसंख्यक द्वारा स्थापित नहीं हैं और केंद्र सरकार द्वारा ‘सहायता प्राप्त’ हैं। अगर सरकार को आरक्षण के मुद्दे पर शीर्ष अदालत से अनुकूल आदेश नहीं मिलता है, तो वह अनुसूचित जाति का एएमयू कोटा बढ़ाने वाला एक अध्यादेश जारी कर सकती है।
ध्यान देने वाली बात है कि शिक्षण संस्थान राष्ट्र निर्माण के केंद्र होते हैं। यह हमारी सांस्कृतिक जागरूकता और सर्वांगीण विकास के एकमेव धूरी होते हैं। यह सिर्फ पठन-पाठन के स्थल नहीं बल्कि राष्ट्र चिंतन शक्ति को प्रतिबिंबित करते हैं। प्राचीन काल में नालंदा और तक्षशिला विश्वविद्यालय भारत के गौरव के प्रतीक थे, जैसे आज हार्वर्ड, स्टैनफोर्ड और येल विश्वविद्यालय आदि अमेरिका, ब्रिटेन और अन्य देशों की पहचान हैं। हम भारतीय लोग शिक्षा को जीवन से भी ज्यादा महत्व देते हैं। सनातन संस्कृति और सभ्यता का मूल स्रोत शिक्षा संस्कार और सहिष्णुता है।
शायद इसीलिए हमने संविधान के अनुच्छेद 29-30 के तहत अल्पसंख्यक समाज को भी अपने शैक्षणिक संस्थान का स्वायत्तता से संचालन करने की स्वतंत्रता प्रदान की। नरेंद्र मोदी की सरकार तो शिक्षा को लेकर कुछ ज्यादा ही प्रतिबद्ध है। इस सरकार ने सर्व शिक्षा अभियान, मिड डे मील, बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ, नई शिक्षा नीति, विश्वविद्यालयों के लिए नया परीक्षा तंत्र के साथ-साथ शिक्षा के अधिकार को सुनिश्चित करने का भी अथक प्रयत्न किया है।
कायदे में रहोगे तो फायदे में रहोगे
बताते चलें कि अपना दूसरा कार्यकाल शुरू करने के साथ ही भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जामिया मिल्लिया इस्लामिया की कुलपति प्रोफेसर नजमा अख्तर से मुलाकात की थी, जहां उन्होंने कुलपति को जामिया में मेडिकल कालेज अस्पताल स्थापित करने में हर संभव मदद देने का भरोसा दिया। पर, जब जामिया के छात्रों ने नागरिकता कानून का हिंसक विरोध किया तब सरकार ने न सिर्फ सख्ती से बलप्रयोग कर उनके होश ठिकाने लगाये, बल्कि उस समय गृह मंत्रालय के इशारे पर 21 मई 2021 को नई दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय में अंग्रेजी विभाग द्वारा आयोजित एक ऑनलाइन “आतंकवाद विरोधी” शपथ समारोह भी आयोजित किया गया। इससे साफ़ स्पष्ट है कि नमो सरकार मुस्लिम शिक्षण संस्थओं को अपनी मनमानी करने तथा हिन्दू और राष्ट्रविरोध गतिविधियों को संचालित करने की छूट देने के मूड में नहीं है। सरकार ने साफ़ स्पष्ट कर दिया है कि कायदे में रहोगे तो फायदे में रहोगे, चुनना तुम्हें है कि प्यार से मानोगे या पलटवार से।